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Chapter 9 Shloka 2
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं र्धम्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।२।।
This knowledge is a sovereign wisdom; this knowledge is
supremely profound; it is extremely pure and elevated;
it can be directly experienced and is imbued
with dharma. Its practice renders great joy;
it is easy to practice and is imperishable.
Chapter 9 Shloka 2
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं र्धम्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।२।।
In order to focus Arjuna’s attention and nurture his interest in this subtle knowledge, the Lord repeats:
This knowledge is a sovereign wisdom; this knowledge is supremely profound; it is extremely pure and elevated; it can be directly experienced and is imbued with dharma. Its practice renders great joy; it is easy to practice and is imperishable.
The Lord says that the knowledge He is about to expound is a sovereign wisdom.
The meaning of ‘sovereign wisdom’
a) A knowledge which surpasses all other knowledge.
b) That which is above all other knowledge.
c) Attaining which all other knowledge becomes meaningless and naught else remains to be known.
Brahm Gyan or knowledge of Brahm is said to be the knowledge which rules all other knowledge, because:
a) It imparts great joy.
b) It is instrumental in turning a mere mortal into a divine being.
c) It turns a divine being into a veritable God!
d) It bestows a Supreme vision upon those who possess eyes and yet could not see.
e) It turns deluded people with attachment into enlightened beings.
However, the Lord calls this sovereign wisdom supremely mystical and profound – Rajguhya. (राजगुह्य)
1. Deeper than all other profound subjects;
2. Even more difficult to understand than all other topics that surpass understanding;
3. Hidden knowledge which is more secret than the most secret knowledge;
4. Even though one may understand the most mysterious subjects, the Atma is completely beyond one’s understanding;
5. This knowledge of the Atma’s essence is beyond the senses, the mind, the intellect and beyond words.
Therefore they say that it is only a very rare being who can fathom this utterly mysterious, sovereign wisdom.
Little one, it is most strange that even though one may know the whole world, yet it is most difficult to know one’s own Self. Then the Lord says that this knowledge is pristine; it is the most excellent; it is imbued with dharma and its practice renders the utmost joy. He also says that this knowledge and its experience are both indestructible.
Little one, understand the reason for this.
a) This is the eternal Truth.
b) It is the Truth today and for all times to come.
c) A human being can become an Atmavaan with the help of this knowledge.
d) There can be no increase in this knowledge nor can it diminish.
Little one, this knowledge can be utilised easily in life and with great joy.
अध्याय ९
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं र्धम्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।२।।
अर्जुन का ध्यान एकाग्र करने के लिये और सूक्ष्म ज्ञान के प्रति उसकी रुचि बढ़ाने के लिये भगवान पुन: कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. यह ज्ञान राजविद्या है।
२. यह ज्ञान राज गुह्य है।
३. यह ज्ञान अति पवित्र तथा अति उत्तम है।
४. प्रत्यक्ष जानने में आने वाला है और धर्मयुक्त है।
५. यह अनुष्ठान करने में भी अति सुखद और सुगम है
६. और यह ज्ञान अविनाशी है।
तत्व विस्तार :
भगवान कहते हैं, जो ज्ञान वह बताने लगे हैं, वह राजविद्या है।
राज विद्या का अर्थ है :
क) सब विद्याओं में श्रेष्ठ विद्या;
ख) अखिल विद्याओं में से उच्चतम विद्या;
ग) जिसे पाकर और सब विद्यायें निरर्थक हो जाती हैं और कुछ भी ज्ञातव्य नहीं रह जाता।
ब्रह्म ज्ञान या ब्रह्म विद्या को विद्याओं का राजा कहते हैं, क्योंकि :
क) वह अतिशय आनन्द देने वाली विद्या है;
ख) वह इन्सान को देवता बना देती है;
ग) वह देवता को भगवान बना देती है;
घ) वह आँख वाले अन्धों को परम दृष्टि प्रदान करती है;
ङ) विभ्रान्त मोह पूर्ण लोगों को प्रकाश स्वरूप बना देती है;
किन्तु भगवान ने इस राज विद्या को राज गुह्य भी कहा है।
‘राजगुह्य’ का अर्थ है :
1. सम्पूर्ण गुह्य विषयों में से गुह्य;
2. सम्पूर्ण समझ न आने वाले विषयों से भी अधिक न समझ आने वाली विद्या;
3. अति गुप्त राज़ से भी अति गुप्त ज्ञान;
4. संसार की अति गुप्त बातों को समझ भी लें किन्तु आत्म तत्व तो समझ से परे है, इस कारण भी यह ज्ञान अति गुह्य है;
5. इन्द्रियों, मन, बुद्धि तथा शब्दों से परे होने के कारण भी यह आत्म तत्व का ज्ञान ‘राज गुह्य’ है।
इसलिये कहते हैं इस राजविद्या के राजगुह्य तत्त्व को ज्ञान तथा विज्ञान सहित कोई विरला ही समझ सकता है।
नन्हीं! बड़ी अजीब सी बात है कि सारे संसार को तो कोई जान भी ले, परन्तु अपने ही स्वरूप को जानना मुश्किल है। फिर भगवान कहते हैं कि यह ज्ञान और राजविद्या अति पावन है, अति उत्तम है, प्रत्यक्ष फल वाला है, धर्मयुक्त भी है, यह करने में भी अति सुखद है तथा यह ज्ञान और विज्ञान अविनाशी भी है।
नन्हीं! भगवान ने इस ज्ञान को ‘अविनाशी ज्ञान‘ कहा, इसका कारण भी समझ ले:
क) यह ज्ञान सदा सत् है।
ख) यह ज्ञान आज भी सत् है और सदा सत् रहेगा।
ग) इस ज्ञान के आसरे जीव हमेशा आत्मवान् बन सकेगा।
घ) इस ज्ञान में न ही कमी और न ही बढ़ती हो सकती है।
नन्हीं! यह ज्ञान साधारण जीवन में आसानी से और सुखी रहते हुए इस्तेमाल हो सकता है।