अध्याय ८
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।२५।।
अब भगवान दक्षिणायन के विषय में कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. जहाँ धूम्र, रात्रि, कृष्ण पक्ष तथा छ: मास का दक्षिणायन है,
२. उसमें तन त्याग कर गया हुआ योगी,
३. चन्द्रमा सम्बन्धी ज्योति को प्राप्त होकर फिर लौट आता है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! कुछ शब्दों को पहले समझ ले।
धूम्र :
क) धूनि को कहते हैं।
ख) धुंधलेपन को कहते हैं।
ग) वाष्प को कहते हैं।
घ) आवरण को कहते हैं।
ङ) मोह को कहते हैं।
कृष्ण :
क) काले को कहते हैं।
ख) अंधियारे को कहते हैं।
ग) आकर्षक को कहते हैं।
घ) हलचल मचा देने वाले को भी कहते हैं।
ङ) चीर देने वाले को भी कहते हैं।
च) सता देने वाले को भी कहते हैं।
छ) कलियुग को भी कहते हैं।
अब यहाँ भगवान योग भ्रष्ट हुए योगियों के विषय में कह रहे हैं कि जो मोह ग्रसित हो जाते हैं, जो लोग सत्यता से दूर हो जाते हैं, जो लोग अज्ञान को ही ज्ञान मान लेते हैं, वे कृष्ण पक्ष के अनुयायी बन जाते हैं। यानि, वे लोग अंधकार की ओर बढ़ने लगते हैं। जैसे सूर्य जब कृष्ण पक्ष का हो, तब छ: महीने दक्षिणायन के होते हैं। उस काल में शनै: शनै: दिन छोटे होने लगते हैं और रात्रि बढ़ने लगती है। इस अवस्था में योगी धूम्र रूपा मोह से आवृत हुए उसी प्रकार सत्यता नहीं देख सकते, ज्यों जीव चन्द्रमा की चान्दनी में स्पष्टता से नहीं देख सकते। ये लोग जहान के विषयों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। कृष्ण पक्ष में योगियों की बुद्धि विचलित हो जाती है और वे धीरे धीरे अंधकार और अप्रकाश में फंस जाते हैं। उनका मन विषयासक्त हो जाता है और वे पुन: जन्म मरण के चक्र में फंस जाते हैं। चन्द्र लोक स्वर्ग लोक को भी कहते हैं।
ये योग भ्रष्ट योगी, स्वर्ग का सुख लेकर पुन: साधारण संसार के दु:ख सुख भोगने के लिये जन्म लेते हैं।