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Chapter 8 Shloka 23
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।२३।।
Arjuna, I shall now describe for you
that time wherein the Yogi
who has renounced his body,
does not return; and that time
whereby the Yogi does return.
Chapter 8 Shloka 23
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।२३।।
The Lord says:
Arjuna, I shall now describe for you that time wherein the Yogi who has renounced his body, does not return; and that time whereby the Yogi does return.
Look little one, the compassionate Lord, explaining to Arjuna once again, now says that, “I shall now describe to you the secret of the Yogi’s return to this earth and also of the circumstances under which such a one does not return.”
Aavritti (आवृत्ति)
Little one, first understand the conditions which cause the return of the Yogi. ‘Aavritti’ means:
a) To come back again;
b) To take birth once more after death;
c) Repeated rebirth;
d) To attain a specific state once again;
e) To attain a specific circumstance once more;
f) To take another’s support again and again.
Contrary to this is the state wherein one does not return after death. Here you must understand Aavritti thus:
1. To be reincarnated repeatedly in the idea of doership.
2. To fall repeatedly into the cycle of birth and death.
3. To be born again and again, tied to the intellect that pertains to the body.
4. To return to this world.
5. Fettered by the fruits of actions and by destiny, to attain the body once more and then submit to death.
6. Fettered by the bonds of the world, to drown in this ocean of the world and rise up again.
Now the Lord says, I shall also describe to you that span of time departing in which, the individual no longer dons the body again. He does not return to the world.
Anaavritti (अनावृत्ति)
a) Those who do not return;
b) Those who attain immortality after renunciation of the body;
c) Those who renounce attachment with the idea of individual existence and thus do not return;
d) Those who merge into That Supreme Enlightened Being of wisdom and then do not take birth again;
e) Those who are completely devoid of attachment to the world;
f) Those who live as the embodiment of selflessness.
Their love, their actions, their devotion and their knowledge is completely selfless. They have no attachment with their body, mind and intellect unit; nor do they seek to establish these. They are not worshippers of the body. They are attached to the Truth, to the Eternal. They are completely silent towards the transient but, knowing the transitory nature of the body, mind and intellect, they place these at the service of all.
a) They, who cannot be bound by any object of the world,
b) They, who cannot be fettered even by any complex or latency of their own mind-stuff,
what could they seek from the world and what would they give to it?
The Yogi is one who is ever immersed in yoga and who is ever engaged in its practice. Little one, the Lord said, “Samatvam Yogam Uchyate.” i.e. the perfect Yogi is one who retains his equanimity in loss and gain, sorrow and happiness, victory and defeat, apprehension and fearlessness, towards enemy and friend, calumny and praise etc.
1. Whose aberrated thought processes are completely silenced;
2. Who does not claim any one state of the body as his own;
3. Who seeks no pedestal for himself;
4. Who despite being proficient in his deeds, fulfils the other’s need by going to the other’s level;
– such a Yogi does not return to this mortal realm after death.
Little one, my dearest, there is no other who can surpass the wisdom of such a one, his state, his firmness in yoga. Such a one identifies with the other by descending to the other’s level and by performing actions like the other.
Little one, that yogi who is subject to ‘return’, is a Yoga Bhrashta.
a) Such a one died whilst treading the path of yoga.
b) He had not yet succeeded in silencing all the aberrated thought processes within.
c) He practised the renunciation of attachment, moha, ego etc. but had not succeeded in eradicating these.
d) He had gained mastery over himself to quite an extent, but had not gained complete control.
e) His tapas or endurance, swadhyay or self study and Ishvar pranidhana or surrender to the Lord was not complete.
f) His mind was not yet in complete control.
However, such a one has left his body even whilst making persevering endeavours towards perfection in yoga. His perusal and study of the Scriptures enriched his knowledge, but that knowledge had not yet moulded his deeds. Nor had the thought processes within his mind stuff become quiescent.
He still possessed the body idea, attachment with the mind and with the body. Complete detachment with the mind had not yet been achieved; renunciation of the intellect had not yet been attained. However, continuous and constant endeavours were underway towards this end, when he passed away.
The Lord is thus describing the state of the Yogi who is subject to rebirth. This state is diametrically opposed to the state of the ordinary man, replete with vice and virtue, who is ever attaining death and rebirth in order to taste the fruits of his myriad deeds.
अध्याय ८
यत्र काले त्वनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिन:।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।२३।।
भगवान कहते हैं,
शब्दार्थ :
१. अर्जुन! जिस काल में शरीर त्याग कर गये हुए योगी,
२. पुन: लौट कर नहीं आते,
३. और पुन: लौटकर आते हैं,
४. उस काल की अब मैं तुझे कहता हूँ।
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं! करुणा पूर्ण भगवान अर्जुन को पुन: समझाते हुए कहने लगे कि ‘मैं तुझे योगियों की अनावृत्ति तथा आवृत्ति का राज़ सुझाता हूँ।’
आवृत्ति :
नन्हीं प्रथम ‘आवृत्ति’ को समझ ले। आवृत्ति का अर्थ है,
क) पुन: लौट कर आना।
ख) मृत्यु के पश्चात् पुन: जन्म लेना।
ग) जन्म का बार बार होना।
घ) किसी विशेष दशा को फिर से पाना।
ङ) किसी विशेष परिस्थिति को फिर से पाना।
च) किसी का बार बार सहारा लेना।
इससे विपरीत जो होना, वह ‘अनावृत्ति’ है।
यहाँ आवृत्ति का अर्थ इस प्रकार समझ लो :
1. बार बार तनत्व भाव में अवतरित होना।
2. बार बार जन्म मरण के चक्र में पड़ना।
3. बार बार देहात्म बुद्धि से बन्ध कर आना।
4. इस संसार में लौट आना।
5. कर्मफल बधित तथा रेखा बधित तन को पुन: पाकर फिर मृत्यु को पाना।
6. संसार के बन्धनों से बंध कर संसार के भव सागर में पुन: डूबना और उभरना।
यही पुनरावृत्ति है।
फिर भगवान कहते हैं कि तुझे यह भी बताता हूँ कि किस काल में शरीर त्याग कर जीव पुन: तन को धारण नहीं करते हैं। यानि, उनकी पुनरावृत्ति नहीं होती।
अनावृत्ति :
क) जो लोग लौटकर नहीं आते।
ख) जो तनो त्याग के पश्चात् अमरत्व पाते हैं।
ग) जो जीवत्व भाव से संग त्याग कर जाते हैं और फिर नहीं लौटते।
घ) जो ज्योतिर्मय, विवेकी हैं और परम में लीन होते हैं, वे दुबारा जन्म नहीं लेते।
ङ) संसार के प्रति जिनके संग का नितान्त अभाव हो।
च) जो निष्कामता की प्रतिमा बनकर ही जीते हैं।
उनका प्रेम, कर्म, भक्ति, ज्ञान, सब पूर्ण निष्काम हैं। यानि, अपने तन, मन, बुद्धि से उन्हें संग नहीं है और न ही वे इन्हें स्थापित करने की भावना रखते हैं। वे तन के पुजारी नहीं हैं। उनकी लग्न सत् से है, नित्य से है। अनित्य के प्रति वे सर्वदा मौन रहते हैं, पर अपने तन, मन, बुद्धि को अनित्य मानते हुए इन्हें सबका चाकर बना देते हैं।
– जिनको संसार का कोई विषय बांध नहीं सकता,
– जिनको अपने चित्त की कोई वृत्ति या संस्कार बांध नहीं सकते,
उन्हें संसार से क्या लेना और क्या देना?
योगी वे होते हैं, जो योग में तत्पर हैं और नित्य अखण्ड योग का अभ्यास करते हैं।
नन्हूँ! भगवान ने कहा, ‘समत्वं योग उच्यते’, यानि हानि लाभ, दु:ख सुख, जय पराजय, हर्ष अमर्ष, भय अभय, मित्र शत्रु, निन्दा स्तुति इत्यादि के प्रति नित्य समत्व में रहने वाले, सिद्ध योगी होते हैं।
– जिनकी सम्पूर्ण वृत्तियाँ मौन हो गई हैं।
– जो अपने तन की कोई भी स्थिति अपनाते नहीं और वहाँ स्थिर नहीं रहते।
– जिनके अपने शरीर का कोई आसन नहीं,
– जो कर्मों में सकुशल होते हुए भी, दूसरे के स्तर पर जाकर कार्य करते हैं। ऐसे योग सिद्ध की पुनरावृत्ति नहीं होती।
नन्हूँ मेरी प्रिय! उनके स्तर का, उनकी विद्वता का, उन जैसा योग में टिका हुआ तो दूसरा हो ही नहीं सकता। व्यावहारिक स्तर पे तो वे दूसरे के स्तर पर आयेंगे ही और दूसरों के जैसे कर्म करेंगे ही।
नन्हीं लाडली! वे योगी, जिनकी पुनरावृत्ति होती है, वे योग भ्रष्ट होते हैं।
क) वे योग पथ का साधन करते करते राहों में ही मृत्यु को प्राप्त हो गये।
ख) वे अभी अपनी वृत्तियों को मौन नहीं कर पाये थे।
ग) वे संग, मोह, अहंकार को छोड़ने का अभ्यास तो करते रहे पर उन्हें छोड़ नहीं पाये थे।
घ) बहुत हद तक वे अपने पर संयम कर चुके थे लेकिन अभी पूर्ण संयमी नहीं हो पाये थे।
ङ) अभी उनका तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधान सफ़ल नहीं हुआ था।
च) उनका मन अभी उनके अधीन नहीं हुआ था।
किन्तु अखण्ड प्रयत्न करते हुए वे तन छोड़ गए। उनके शास्त्र अध्ययन ने ज्ञान तो दिया पर जीवन में रूप नहीं धरा। अभी उनकी चित्त की वृत्तियाँ भी पूर्णतय: निरुद्ध नहीं हुईं, इत्यादि।
यानि, अभी तनत्व भाव है, मनो संग है, देहात्म भाव है, मन से वैराग्य नहीं हुआ, बुद्धि से संन्यास नहीं हुआ; किन्तु इनकी प्राप्ति के लिये अहर्निश अखण्ड प्रयास हो रहा था जबकि उनकी मृत्यु हो गई।
यह सब योगी की पुनरावृत्ति के लिये कहा है। साधारण पाप पुण्य पूर्ण लोग अपने कर्मों के फल भोगने के लिये किसी भी काल में मृत्यु, जन्म तथा पुन: मृत्यु पाते रहते हैं।