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Chapter 8 Shlokas 20, 21
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।२०।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।
However, far beyond even this Unmanifest there is
yet another unique, unmanifest existence which does not
perish even when all other beings are destroyed.
It is unmanifest and indestructible.
It is the Supreme Goal – attaining which
there is no return. That is My Supreme Abode.
Chapter 8 Shlokas 20, 21
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।२०।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।
Now the Lord speaks of that ancient, unmanifest Truth.
However, far beyond even this Unmanifest there is yet another unique, unmanifest existence which does not perish even when all other beings are destroyed. It is unmanifest and indestructible. It is the Supreme Goal – attaining which there is no return. That is My Supreme Abode.
The Lord clarified even earlier that “All these lokas or realms and all mortal beings are bound by attributes, by names and forms, by the length of their duration and by time itself, by the body, by life and death and by innate latencies. Transcending all this lies the essence of Brahm – the Supreme abode – Krishna Himself.”
Lord Krishna’s basic nature
1. He is beyond the body idea.
2. He transcends the idea of individual existence.
3. There is a complete absence of the intellect that pertains to the body.
4. He transcends time.
5. That attributeless One attains a form with the support of Prakriti; however, He is beyond the gunas.
6. He is beyond maya; He is only the Atma. He is the supreme Lord Himself.
7. He is the eternal, imperishable epitome of knowledge and its practice and transcends both knowledge and ignorance.
8. He is unmanifest but is seen to be manifest.
9. He appears to have a name and form, yet, no ‘I’ exists there to which that name and form could be attributed.
10. He is the Indestructible One amidst the destructible.
11. He is absorbed into the Supreme Atma.
12. What meaning can birth and death hold for one who no longer claims the body as his own? He is like a living symbol of Brahm.
13. He is the goal of the sadhak. He is Brahm’s boon to the mortal being.
14. It would seem that His birth has taken place only for the establishment of dharma.
15. He is the actual form of the nature of That Supreme Brahm – the epitome of Adhyatam. Watching His example, many a great man of wisdom,
– can understand the true meaning of scriptural tenets;
– can obtain the essence of Truth;
– can discern Brahm’s code of conduct;
– can discern where they have deviated from the path of spiritual living.
Therefore that Supreme Purusha is known as:
a) Eternal essence of knowledge and its practical demonstration in life.
b) Knowledge Itself which irradiates luminescence in the world.
c) Indivisible Atma in manifest form.
d) Supreme Essence of Truth – the nectar that grants immortality.
e) Eternal Essence of the Atma – Light itself.
f) Everlasting Truth.
g) The eternal, unmanifest One who appears as manifest.
h) The refuge of all and the support of all.
i) He also has various other epithets.
– That indivisible, eternal Essence is the very core of all beings.
– That indivisible, eternal Essence is the aim of all beings.
– It is that indivisible, eternal Essence into which all beings desire mergence.
The Lord says, “That is My abode; that is the Supreme State. Having attained that indestructible Brahm – the Self of all, the individual does not return to the mortal world. Once absorbed into the essence of That Supreme Brahm, he is freed from the cycle of birth and death.
Why does Such a One never return?
Little one, on the one hand lies the Atma Itself and on the other hand, Prakriti. That individual who is not affected by Prakriti during his lifetime and who has no expectations of the world wrought from Prakriti:
1. He becomes like Brahm – working for the welfare of all beings born of Prakriti.
2. He identifies with all.
3. Whosoever comes before him, he goes to that one’s level and seems to be one with him.
4. His actions seem to match the deeds of the one who stands before him.
5. He seems to follow the same dharma as the one who comes to him.
The Lord says that the Atmavaan performs actions similar to the Lord’s. When the individual has no use for the creation of Prakriti, then Prakriti no longer exists for such a one – only the Atma remains.
Little one, let me explain this for you again. This is an extremely subtle point, so hear it carefully. The individual who considers the body to be important, has several expectations and needs from the world. When he no longer claims the body, nothing remains for him to achieve or to know. The world matters to the individual as long as the body or the ‘I’ holds any significance for such a one. With the decline in their importance, the world becomes meaningless. Such a one does not even bother about the life or death of the body. He neither craves for life, nor cares about death.
Little one, the Unmanifest One whom the Lord has earlier described, can be understood:
a) if you comprehend the truth about the absorption of the world and its re-emergence;
b) if you understand about the subsiding of the latencies of man and their regeneration;
c) if you know that the seeds of karma lapse into a dormant mode of rest after death and then re-emerge in the form of a new body.
This cycle of the unmanifest and the manifest is ever moving. The Atma transcends this cycle. The Atma is never destroyed nor re-created. It is ever indestructible and unchangeable.
अध्याय ८
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।२०।।
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।२१।।
अब भगवान सनातन अव्यक्त तत्व के विषय में कहते हैं।
शब्दार्थ :
१. परन्तु इस अव्यक्त से भी परे एक और विलक्षण, सनातन, अव्यक्त भाव है,
२. वह सर्वभूतों का विनाश हो जाने पर भी नष्ट नहीं होता।
३. उसे अव्यक्त अक्षर कहते हैं,
४. उसको परम गति कहते हैं,
५. जिसे पाकर फिर वापस नहीं लौटते।
६. वह मेरा परम धाम है।
तत्व विस्तार :
भगवान पूर्व भी कह कर आये हैं, ‘ये पूर्ण लोक और भूत गण, गुण, रूप, नाम, काल, अवधि, तन, जन्म, मृत्यु और संस्कार बधित होते हैं, किन्तु इन सबसे परे ब्रह्म स्वरूप है, परम धाम है, कृष्ण स्वरूप है।’
कृष्ण स्वरूप :
1. वह तनत्व भाव से नितान्त परे हैं।
2. वह जीवत्व भाव से नितान्त परे हैं।
3. वहाँ देहात्म बुद्धि का नितान्त अभाव है।
4. वह काल से परे होते हैं।
5. वह निर्गुण स्वरूप, प्रकृति के आसरे रूप तो धरते हैं पर गुणों से परे होते हैं।
6. वह माया से परे होते हैं, वह तो केवल आत्मा हैं, वह तो केवल परमात्मा हैं।
7. ज्ञान अज्ञान से परे, नित्य अविनाशी, ज्ञान विज्ञान स्वरूप वह स्वयं हैं।
8. वह निराकार हैं पर साकार से दिखते हैं।
9. वह जग में नाम तथा रूप धारण किये हुए से दिखते हैं पर वहाँ नाम रूप धारी ‘मैं’ नहीं होता।
10. वह क्षर में अक्षर हैं।
11. वह परम आत्म में विलीन हो चुके हैं।
12. जिसका तन ही नहीं रहा, उसके लिये जन्म मृत्यु क्या अर्थ रखेंगे? वह तो मानो ब्रह्म तत्व के प्रतीक हैं।
13. साधक के वही लक्ष्य हैं। जीव के लिये वह ब्रह्म का वरदान हैं।
14. धर्म स्थापन अर्थ ही मानो उनका जन्म हुआ है।
15. परम ब्रह्म स्वभाव रूप अध्यात्म का वह यथार्थ रूप हैं। उन्हें देखकर श्रेष्ठ ज्ञानी जन :
क) शास्त्र का यथार्थ अर्थ समझ सकते हैं।
ख) सत्त्व का यथार्थ अर्थ पहचान सकते हैं।
ग) ब्रह्म आचरण विधि को पहचान सकते हैं।
घ) कहाँ पथ से विमुख हए, यह वे जान सकते हैं।
इसलिये तो वह परम पुरुष :
क) नित्य विज्ञान स्वरूप, ज्ञान स्वरूप कहलाते हैं।
ख) नित्य प्रकाश स्वरूप ज्ञान स्वरूप कहलाते हैं।
ग) अखण्ड आत्म रूप कहलाते हैं।
घ) परम तत्व रस सार, अमृत रूप कहलाते हैं।
ङ) नित्य आत्म तत्व, प्रकाश स्वरूप कहलाते हैं।
च) नित्य सत्य स्वरूप कहलाते हैं।
छ) वह तो नित्य निराकार, साकार रूप में आते हैं।
ज) वह तो अखिल आश्रय, सर्वाधार कहलाते हैं तथा अनेकों अन्य नामों से पुकारे जाते हैं।
– वह अव्यय अक्षर तत्व ही तो जीव का स्वरूप है।
– वह अव्यय अक्षर तत्व ही तो जीव का लक्ष्य है।
– उस अव्यय अक्षर तत्व में ही तो जीव समाहित होना चाहते हैं।
भगवान कहते हैं, ‘वही मेरा धाम है, वही परम गति है। इस अक्षर आत्म स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होकर जीव पुनरावृत्ति को नहीं पाता। उस अक्षर परम तत्व स्वरूप में विलीन होकर वह जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है।’
उनका पुनर्जन्म क्यों नहीं होता?
नन्हीं! एक ओर आत्म तत्व है और दूसरी ओर प्रकृति है। जिस जीव को जीते जी प्रकृति प्रभावित न कर सके, तन प्रभावित न कर सके और जिसे प्रकृति रचित सृष्टि से कोई प्रयोजन न रहे,
1. वह तो प्रकृति रचित जीवों के हित में ब्रह्म समान ही हो गया।
2. वह तो सबके ही तद्रूप हो जाता है।
3. जो उसके सामने आये, वह उसके स्तर पर जाकर वैसा ही दिखता है।
4. जो उसके सामने आये, वह उसके समान ही कर्मों वाला हो जाता है।
5. जो उसके सामने आये, वह उसका सार्धम्य हो जाता है।
भगवान ने कहा कि ज्यों वह करते हैं, वैसे ही करने वाला आत्मवान् हो जाता है। जब जीव को सम्पूर्ण प्रकृति से कोई प्रयोजन नहीं होता, तब मानो उसके लिये प्रकृति नहीं रही, उसके लिये केवल आत्मा रह जाता है।
लो नन्हीं! तुम्हारे लिये इसे पुन: सुझाते हैं। यह अति सूक्ष्म बात है, ध्यान से सुन! तन से तद्रूप हुए जीव को सृष्टि से नित्य प्रयोजन रहता है। जब तन ही आपका नहीं रहा, तो आपके लिये प्राप्तव्य कुछ नहीं रहता, ज्ञातव्य कुछ नहीं रहता। तन या ‘मैं’ के नाते ही संसार कोई अर्थ रखता है। इनके अभाव के पश्चात् संसार निरर्थक हो जाता है। तन जिये या मरे, उन्हें इसका भी ध्यान नहीं आता। उनकी न जीने की मर्ज़ी है, न मरने का इरादा है।
नन्हीं! जिस अव्यक्त की बात वह पहले कह कर आये हैं, वह :
1. सृष्टि की लय अवस्था समझ लो, जो पुन: प्रकट हो जाती है।
2. संस्कारों की लय अवस्था समझ लो, जो पुन: प्रकट हो जाते हैं।
3. मृत्यु के पश्चात् कर्म बीज लय अवस्था पाते हैं और फिर नव तन रूप में उभर आते हैं।
यह व्यक्त तथा अव्यक्त का चक्र चलता ही रहता है। आत्मा इनसे विलक्षण है। वह न तो कभी क्षय को पाता है और न ही कभी उत्पन्न ही होता है। वह तो नित्य अक्षर है, वह तो नित्य अपरिवर्तनशील है।