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Chapter 8 Shlokas 9, 10
कविं पुराणमनुशासितारम् अणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णं तमस: परस्तात्।।९।।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।१०।।
That Yogi, who at the time of death, fixes his mind unrelentingly upon That Ancient One; who is the controller of even the subtlest of the subtle; who transcends thought;
who is resplendent like the sun which pierces the darkness; and who, imbued with devotion, establishes his life breath between his eyebrows through the power of yoga,
attains That Divine Supreme Purusha.
Chapter 8 Shlokas 9, 10
कविं पुराणमनुशासितारम् अणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णं तमस: परस्तात्।।९।।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।१०।।
Bhagwan says:
That Yogi, who at the time of death, fixes his mind unrelentingly upon That Ancient One; who is the controller of even the subtlest of the subtle; who transcends thought; who is resplendent like the sun which pierces the darkness; and who, imbued with devotion, establishes his life breath between his eyebrows through the power of yoga, attains That Divine Supreme Purusha.
The attributes of Brahm
Little one, first understand the connotations of some of the words of this shloka.
Kavim (कविम्)
1. One who is omniscient.
2. A great intellectual.
3. One who is renowned.
4. One who is a seer of eternity.
Puraanam (पुराणम्)
1. Eternal.
2. Without beginning.
3. It is also that which is very ancient.
Anushaasitaaram (अनुशासितारम्)
1. One who maintains discipline.
2. One who formulates the rules.
3. One who commands.
4. One who controls.
Anoraniyaam (अणोरणीयांसम्)
1. The smallest and subtlest particle.
2. As subtle as ether.
3. Equal to an atom.
Dhaataaram (धातारम्)
1. One who nurtures.
2. That which sustains.
3. The support of all.
4. The Universal law is also called ‘dhata’.
Achintya Roopam (अचिन्त्य रूपम्)
1. That which cannot be encompassed by the mind.
2. That which cannot be described by words.
3. That which is not a subject of the intellect.
4. The Atma.
5. That which transcends the sense organs.
Aditya Varnam (आदित्य वर्णं)
1. The complexion of the sun.
2. Luminescence Itself.
3. That which endows Light.
4. That which eternally illuminates.
Tamsah Parastaat (तमस: परस्तात्)
1. That which is beyond darkness i.e. Light itself.
2. That which transcends ignorance i.e. Knowledge itself.
3. That which is beyond moha, i.e. Wisdom itself.
The individual who, endowed with unflinching devotion, practises yoga with One who possesses all the above attributes, and steadying his life breath between his eye brows, meditates with a pure mind on That One whilst renouncing his body, attains That Divine Purusha. When he gives up the body, he merges into That Supreme One.
a) Meditate on That Indivisible, Indestructible, Ancient Essence.
b) Keep your mind fixed with devotion on That Creator and Sustainer of the world.
c) Meditate on That Supreme Controller and Sustainer of the world.
d) Meditate on That One, the effective force behind the world and its supports.
e) Meditate on the One who nourishes this entire universe.
f) Meditate on That One who is subtler than the subtlest.
g) Meditate on That One, who transcends the orbit of thought, who is Invisible and All pervading.
h) Knowing Him to be Luminescence Itself, meditate on Him alone.
You will then shed the body idea and attain Him alone.
Little one, all these definitions point towards the Supreme Atma. These worldly eyes cannot perceive the Atma. They say, “Steady your life breath between the eyebrows and with pure mind reflect on the Atma.” Therefore it is evident that in order to become an Atmavaan, one has to look far beyond the praanas. In fact, a sincere aspirant does not care whether his life breath remains or not; he is looking upon That Divine Supreme Purusha who lies beyond the praanas. That One is his very Self.
Little one, the eyes of such a devotee are not focused on the gross, visible world but on the Atma. He perceives beyond the praanas. His mind is automatically rendered pure. Such a Yogi, whose vision is thus fixed only on the Atma, renounces the body and attains the Supreme Purusha.
1. He becomes the Divine Purusha Himself.
2. He becomes an Atmavaan.
3. He becomes the Supreme Purusha – noblest amongst all men.
4. He becomes the Lord Himself.
अध्याय ८
कविं पुराणमनुशासितारम् अणोरणीयांसमनुस्मरेद्य:।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपम् आदित्यवर्णं तमस: परस्तात्।।९।।
प्रयाणकाले मनसाऽचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।१०।।
भगवान अब कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. जो योगयुक्त पुरुष,
२. सकल पुरातन, अनुशासन करने वाले सूक्ष्म से सूक्ष्मतर सबके धाता, अचिन्त्य स्वरूप, आदित्य वर्ण वाले, अन्धकार से परे, (परमात्मा को),
३. प्रयाण काल में, अचल मन से,
४. भक्ति से युक्त होकर और योग बल से,
५. भ्रुवों के बीच में अच्छी प्रकार प्राणों को स्थापन करके, स्मरण करता है,
६. वह उस दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है।
तत्व विस्तार :
ब्रह्म के गुण :
नन्हीं! पहले कुछ शब्दों के अर्थ समझ ले।
कविम् :
1. सर्वज्ञ को कहते हैं।
2. महाबुद्धिवान् को कहते हैं।
3. प्रतिभाशाली को कहते हैं।
4. त्रिकालदर्शी को कहते हैं।
पुराणम् :
1. सनातन को कहते हैं।
2. अनादि को कहते हैं।
3. अति प्राचीन को भी कहते हैं।
अनुशासितारम् :
1. अनुशासन करने वाले,
2. नियम बनाने वाले,
3. आदेश देने वाले,
4. नियन्त्रण करने वाले को कहते हैं।
अणोरणीयांसम् :
1. सूक्ष्म से सूक्ष्म ज़र्रा।
2. वायु के समान सूक्ष्म।
3. परमाणु के बराबर।
धातारम् :
1. पालन करने वाला।
2. धारण करने वाला।
3. सबका आधार।
4. धाता विधान को भी कहते हैं।
अचिन्त्य रूपम् :
1. जो चिन्तन में न आ सके।
2. जो शब्द बधित न हो सके।
3. जो बुद्धि का विषय न हो।
4. अचिन्त्य स्वरूप आत्मा को कहते हैं।
5. अचिन्त्य स्वरूप अतीन्द्रिय को कहते हैं।
आदित्य वर्णं :
1. सूर्य वर्ण को कहते हैं।
2. स्व प्रकाश स्वरूप को कहते हैं।
3. दीप्तिमान स्वरूप को कहते हैं।
4. नित्य प्रकाश करने वाले को कहते हैं।
तमस: परस्तात् :
1. अन्धकार से परे यानि प्रकाश स्वरूप।
2. अज्ञान से परे ज्ञान स्वरूप।
3. मोह से परे विवेक स्वरूप।
जो जीव अनन्य भक्ति से युक्त होकर, ऊपर कहे गये विशेषणों वाले पुरुष से योग करने का अभ्यास करते हुए, अपने प्राणों को भ्रुवों में स्थित करके, तन के त्याग के समय निश्चल मन से उसका स्मरण करता है, वह तन को त्याग कर उसी दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है। तब वह तन को त्याग कर उसी परम में समा जाता है।
इसलिये कहते हैं,
क) अव्यय, अविनाशी, सनातन तत्व पर ध्यान लगाओ,
ख) भक्ति युक्त होकर विश्व रचयिता, नियमन कर्ता पर ध्यान लगाओ,
ग) परम अनुमन्ता, नियन्ता, ईषणकर्ता पर ध्यान लगाओ,
घ) विश्व कारक तथा विश्व धारणकर्ता पर ध्यान लगाओ,
ङ) विश्व पोषणकर्ता, भरणकर्ता पर ध्यान लगाओ,
च) उसे सूक्ष्म से अति सूक्ष्म जानकर ध्यान लगाओ,
छ) अचिन्त्य, अदृश्य, सर्वव्यापी पर ध्यान लगाओ,
ज) नित्य प्रकाश स्वरूप उसे जानकर उस पर ध्यान लगाओ,
तो तनत्व भाव त्याग कर तुम उसे ही पाओगे!
नन्हीं! इन सबसे संकेत आत्मा तथा परमात्मा की ओर है। आत्मा को चर्म चक्षु नहीं देख सकते वह यहाँ कहते हैं कि, ‘भ्रुवों के बीच में प्राण स्थापन करके निश्चल मन से आत्मा का स्मरण करे,’ यानि, आत्मवान् बनने के लिए तो जीवों को प्राणों से भी परे देखना होता है। साधक प्राणों के रहने या न रहने की परवाह नहीं करते। वह तो मानो प्राणों के पीछे रहने वाले दिव्य परम पुरुष, आत्म स्वरूप को देख रहे हैं।
नन्हीं! ऐसे भक्त के नयन स्थूल दृष्टि पर नहीं, आत्म तत्व पर टिके होते हैं। उसके नयन प्राणों से भी परे देखते हैं। उसका मन स्वत: निश्चल हो जाता है। ऐसा योगी, जो नित्य आत्मा में ही चित्त टिकाये हुए होता है, वह देह को त्यागकर दिव्य परम पुरुष को प्राप्त करता है। यानि,
क) वह स्वयं दिव्य पुरुष बन जाता है।
ख) वह आत्मवान् बन जाता है।
ग) वह परम पुरुष पुरुषोत्तम बन जाता है।
घ) वह तो भगवान ही बन जाता है।