Chapter 8 Shloka 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।।६।।

O Arjuna, the thought that occupies his mind

at the time of relinquishing the body,

is the same thought that he was

absorbed in throughout his lifetime.

He attains that same belief again.

Chapter 8 Shloka 6

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।।६।।

Now Bhagwan narrates the secret of life after life:

O Arjuna, the thought that occupies his mind at the time of relinquishing the body, is the same thought that he was absorbed in throughout his lifetime. He attains that same belief again.

The Lord explains again:

1. Whatever you have accepted as the truth during life is what you will receive in the next birth.

2. You will inevitably receive that which you have in reality believed to be the truth.

3. Whatsoever may have been the principal purpose of your life will be given to you again.

4. Whatever plans you may have made for the attainment of a certain objective, will be granted to you again in the future.

5. The essence of your life will meet up with you once again.

6. The purpose of your life will confront you again.

7. The means you employ presently to attain desired fruit will be available to you in the future as well.

8. You will inevitably encounter people with the same style of conduct as yours.

9. Whatever treatment you gave to the world with a mind full of attachments and aversions, you will be treated similarly.

10.  The atrocities you have committed in order to attain a desired goal will come before you one day.

11.  Whatever misdeeds you have indulged in for your pleasure, will be inflicted on you.

12.  If you have never considered anyone to be yours, how can anyone ever fulfil any duty towards you?

13.  You too, will be the recipient of the immense sorrow you have given to the world.

14.  If your life was devoid of mercy and dharma, you will meet with only merciless people in the future.

15.  If you had never practised compassion, nobody will have compassion for you.

16.  If you sought only desire fulfilment, yet remained unsatiated, this dissatisfaction will always be your lot.

Consider further; having conducted yourself in this manner:

a) you always proved yourself to be blameless;

b) you justified yourself as correct;

c) you justified all that you did contrary to dharma, by giving all kinds of arbitrary reasons;

d) you forsook your duty, giving several excuses to absolve yourself;

e) you were not true even to yourself;

f) your arguments were always based on sheer imagination;

g) you never did justice to anyone, yet you continued to consider yourself the most just.

h) concealing your true intent, you tried to project yourself as a sage;

i)  despite noticing your lacunae you continued to give yourself airs;

j)  thus using arguments filled with fallacies, you tried continually to prove yourself sinless. You believed those false arguments to be true and justified your deeds. Whatever you did to others will be returned to you. Your basic intent is bound to bear fruit.

k) The justice that you formulated for yourself will come before you some day.

l)  Truth will yield its fruit. It will create a future seed.

m)   That falsehood which you tried to present as the Truth will attain a concrete form and come before you.

n) If you have committed any transgression and then proved it to be correct and thus tried to absolve yourself of its blame, it will one day confront you once more.

o) What you gave to another, will be given to you. What you have taken from the other, will be taken away from you.

p) However, you must remember, it will be taken away from you in the same circumstances as you took it from the other.

Therefore, consider what you must do. Whatever you have received at this moment has been a gift of destiny to you. Now perceive your own intent and thought process. It is this thought process that creates the future seed. The Lord seems to be saying, “Perceive clearly and carefully, what are your thoughts today?”

अध्याय ८

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:।।६।।

अब भगवान जन्म जन्म का राज़ बताते हुए कहने लगे कि :

शब्दार्थ :

१. हे अर्जुन!

२. अन्तकाल में जिस जिस भाव को याद करता हुआ,

३. (जीव) शरीर को त्यागता है,

४. वह सदा उस ही भाव का चिन्तन करता रहता है

५. और उसी भाव को प्राप्त होता है।

तत्व विस्तार :

भगवान समझाते हैं,

क) पूर्ण जीवन आप जिसे भी सत् मानते रहे हो, वही आपको आगे भी मिलेगा।

ख) वास्तविकता में आप जिसको सत् मानते रहे हो, वही आपको आगे भी मिलेगा।

ग) आपके जीवन का जो प्रयोजन रहा है, वही आपको आगे भी मिलेगा।

घ) आप जिस भाव की पूर्ति के योजन बनाते रहे, वही योजन आपको आगे चलकर मिलेंगे।

ङ) आपके जीवन का जो सारांश है, वही आपको आगे चल कर मिलेगा।

च) आपके जीवन का जो अभिप्राय था, वही आपको आगे भी मिलेगा।

छ) वांछित कर्म फल पाने के लिये आपने जो विधि अपनायी जीवन में, वही आपको आगे भी मिलती है।

ज) जो तुम्हारी आचरण विधि थी, वैसे ही आचरण वाले आपको आगे भी मिल जायेंगे।

झ) मन में पूर्ण राग द्वेष भर कर आपने जो गति जग की करी है, वही गति आपकी भी होगी।

ञ) कामना पूर्ण करने के लिये आपने जो जो अत्याचार किये हैं, वे आपके सामने आ ही जायेंगे।

ट) किसी भोग की चाह लिये आपने जो व्यभिचार किये हैं, वे सब आपको आगे मिल जायेंगे।

ठ) गर आपने कभी किसी को अपना माना ही नहीं, तो आपके प्रति कर्तव्य कौन निभायेगा?

ड) आपने जो दारुण दु:ख सबको दिये, वही आपको मिल जायेंगे।

ढ) यदि आपके जीवन में दया धर्म का नाम न था, तो निर्दयी लोग ही आगे मिलेंगे।

ण) गर आपने क्षमा, करुणा कभी करी नहीं, तो आप पर करुणा कोई नहीं करेगा।

त) गर आपके कदम केवल तृष्णा पूर्ति के लिये ही निरन्तर बढ़ते रहे फिर भी आप अतृप्त रहे, तो आगे भी अतृप्ति ही मिलेगी।

इतना ही नहीं, ज़रा देख! यह सब करके तूने क्या किया?

1. अपने को नित्य दोष विमुक्त किया।

2. अपने को उचित ही ठहराया।

3. जो भी तूने अधर्म किया, यथा इच्छा उसका कारण दिखलाया और अपने को सदा ठीक कहा।

4. बहाने अनेकों लगाता रहा और कर्तव्य धर्म सब छोड़ दिये।

5. अपनी आँखों से भी अपने को बचाता रहा।

6. कल्पना आधारित तर्क वितर्क करता रहा हमेशा।

7. किसी के साथ न्याय कभी किया ही नहीं फिर भी न्यायमूर्ति ख़ुद को ठहराता रहा।

8. वास्तविक भाव छिपा कर अपने को साधु दर्शाता रहा।

9. अपना मुखड़ा देख के दर्पण में नाहक तू इतराता रहा।

10. तेरा तर्क वितर्क अपने को पाप विमुक्त सिद्ध करता हुआ, मिथ्यात्व से भरा हुआ था। तूने जीवन में उस मिथ्यात्व को सच माना और अपने कर्म को उचित कहा। जो तूने किया, वही तुझे मिल जायेगा। तेरा भाव निश्चित फल पायेगा।

11. अपने लिये तूने जो न्याय रचा, वही तो तेरे सामने आयेगा।

12. सत् फल निश्चित लाता है; सत् बीज निश्चित बन जाता है।

13. जिस असत् को तूने सत् कहा है, वह असत् तो रूप धर कर तेरे सामने आयेगा ही।

14. गर तूने व्यभिचार किया, फिर उसे उचित कह कर ख़ुद को दोष विमुक्त किया, तब वह तो तेरे सामने आयेगा ही।

15. जो दूजे को तूने दिया है, वह तुझको मिल जायेगा। जो तूने दूजे का लिया है, वह पुन: हाथ नहीं आयेगा।

16. किन्तु याद रहे! जिस हालात में लिया है, उस हालात में ही तेरा चला जायेगा।

सो सोच लो, तुमने क्या करना है? इस पल जो मिला, वह रेखा ने दिया। अब अपने भाव तू देख ले, भाव ही बीज बन जाता है। सो मानो भगवान कह रहे हैं, ‘स्पष्टता से तू देख ले, आज तुम्हारे भाव कैसे हैं?’

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