- Home
- Ma
- Urvashi
- Ashram
- The Arpana Ashram
- Universal Family
- Celebrations and Festivals
- The Arpana Family
- Principal Architects
- Inspirational Emblem
- Arpana’s Mission & Activities
- Temple Activities & Discourses
- Publications
- Audio & Video Research Office
- Spiritual Stage Presentations
- A Temple of Human Accord
- Arpana’s Archives & Library
- Visitors Comments
- Arpana Film
- Research
- Service
- Products
Chapter 8 Shloka 4
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।४।।
O peerless amongst embodied souls!
All that is perishable is Adhibhoot;
the Supreme Purusha is Adhidaiva;
and I Myself am Adhiyagya
who abides in the body.
Chapter 8 Shloka 4
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।४।।
Lord Krishna addresses Arjuna:
O peerless amongst embodied souls! All that is perishable is Adhibhoot; the Supreme Purusha is Adhidaiva; and I Myself am Adhiyagya who abides in the body.
Adhibhoot (अधिभूत) – Nature or Prakriti wrought by the Supreme through amalgamation of the animate and the inanimate
1. The transient gross universe is Adhibhoot.
2. That which is changeable is Adhibhoot.
3. That which is controlled by the gunas or attributes of Prakriti is Adhibhoot.
4. The transient nature is Adhibhoot.
5. The process of creation, sustenance, and re-absorption is Adhibhoot.
6. All objects that are susceptible to mergence and separation are Adhibhoot.
7. All objects that are susceptible to birth and death belong to the sphere of Adhibhoot.
8. The Vaishvanar aspect of the Supreme, where He Himself inheres all beings, is Adhibhoot.
9. That Supreme One is the support of all creation and also its form.
10. That One constitutes the gross Prakriti or nature and is also the threefold energy that pervades it. It is He who effects change through the attributes that inhere in all things. Therefore it could be said that He Himself is Adhibhoot.
The gross creation of the Supreme performs many works in the universe. This body, too, performs several deeds, spurred by the gunas bestowed by the Supreme. Gunas interact with other gunas and many a change is wrought. All this happens within the orbit of That Supreme One. Every guna comes from Him. The union between gunas is caused by Him. He is the greatest among all beings – the Lord of all. Hence He is Adhibhoot.
Adhidaiva (अधिदैव)
1. Adhidaiva is Brahm.
2. Adhidaiva is the Lord of all energy.
3. Consciousness Itself, Taijas can be called Adhidaiva.
4. The Principal Controller of mind, intellect and the ego is Adhidaiva.
5. The Supreme Being can be called Adhidaiva.
6. The hidden latencies of several births lie in Adhidaiva.
7. The Creator of the Universal law, its Upholder and the all-knowing Principle is Adhidaiva.
8. The Protector of all – the personal God is Adhidaiva.
9. Negative and positive attributes spring forth from this source.
10. The constitution of power relegation to the sense faculties takes place here. Adhidaiva is the Lord of all the powers of Brahm. Adhidaiva is the Lord of all the divine powers. The subtle aspect of Brahm is Adhidaiva.
Adhiyagya (अधियज्ञ)
Bhagwan tells Arjuna, “O great one amongst all embodied beings! I am the Adhiyagya that pervades the body.”
1. In the body, the Lord is the Master of all yagya.
2. He is the protector of yagya.
3. He is the originator of yagya.
4. He silently pervades all yagya.
5. He is the sole support of all yagya.
Yagya originates from the Lord’s divine Name. It originates in the Truth. Selfless deeds are performed in the Lord’s Name. Selfless knowledge is acquired in order to know the Supreme. Nishkam Upasana or ‘sitting near That Supreme One with faith’ leads to the inculcation of the qualities of the Supreme in one’s life. That epitome of Adhiyagya accepts the yagya of all beings and bestows upon them, yagyashesh or the unalloyed joy that emanates from yagya.
This yagyashesh is bestowed by the Supreme Lord; this is the sanctified water of His divine feet (charanamrit), partaking of which, one is indeed blessed. As the aspirant who performs yagya invokes the Lord’s presence in his every deed, he begins to experience the attitude of selflessness and its resultant benefits:
a) transcendence from the gunas or attributes;
b) detachment;
c) deliverance from moha;
d) eternal satiation;
e) equanimity;
f) the inculcation of divine attributes;
g) absence of the idea of doership.
All these benefits accrue as a prasaad of yagya. All this transpires in the omnipresence of the Adhiyagya.
Little one, the Lord makes all these so-called classifications of that Indivisible, Indestructible Brahm for the individual’s understanding:
1. To explain to the jiva;
2. To help him to understand the nature of Brahm;
3. To annihilate his ego;
4. To eradicate his attachment;
5. To stress upon him that ‘All is Brahm’;
– He is the Lord of the perishable world – Adhibhoot.
– He is the Lord of the subtle, conscious world – Adhidaiva.
– He Himself is Adhiyagya – the Essence of the Atma.
अध्याय ८
अधिभूतं क्षरो भाव: पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।४।।
शब्दार्थ :
१. क्षरभाव अधिभूत है।
२. पुरुष ही अधिदैव है।
३. हे अर्जुन! इस देह में मैं ही अधियज्ञ हूँ।
तत्व विस्तार :
अधिभूत :
जड़ चेतन संगम के परिणाम रूप परम की प्रकृति :
क) क्षणभंगुर जड़ जंगम अधिभूत भाव है।
ख) परिवर्तनशील अधिभूत भाव है।
ग) गुण बधित अधिभूत भाव है।
घ) परा प्रकृति अधिभूत भाव है।
ङ) उत्पत्ति, स्थिति, लय, अधिभूत भाव है।
च) वियोग संयोग पूर्ण विषय अधिभूत भाव है।
छ) जन्म मृत्यु पूर्ण विषय अधिभूत भाव है।
ज) परम का वैश्वानर रूप अधिभूत भाव है।
झ) सृष्टि आधार वह आप हैं, पर सृष्टि रूप भी आप हैं।
ञ) अपनी जड़ प्रकृति भी वह आप हैं, त्रैगुण शक्ति भी वह आप हैं। वह गुणों द्वारा जिसमें भी परिवर्तन करवाते हैं, वह अधिभूत भाव भी वह आप ही हैं।
परम की जड़ रचना जग में बहुत काज करती है। यह तन भी जहान में काज करता है। वह परम गुण देन आसरे ही सब करता है। गुण गुणों में वर्तते हैं तथा जहान में अनेकों परिवर्तन लाते हैं। अनेक नव रूप धरे जाते हैं जहान में, पर सब उसी परम में होता है। हर गुण उस गुणपति का है। गुण मिलन संयोग भी उसी से होते हैं। सब भूतों से वह श्रेष्ठ हैं, सब भूतों के वह अधिपति हैं, इस कारण उन्हें अधिभूत कहते हैं।
अधिदैव :
अधिदैव भी ब्रह्म ही हैं।
1. अधिदैव शक्ति पति को कहते हैं।
2. परम पुरुष पुरुषोत्तम को तुम अधिदैव कह लो।
3. चेतन मात्र तैजस् को तुम चाहे अधिदैव कह लो।
4. मन, बुद्धि, अहंकार, अधिष्ठात्री देव को अधिदैव कह लो।
5. परम पुरुष को चाहे अधिदैव कह लो।
6. जन्म जन्म के निहित संस्कार अधिदैव में छिपे हुए हैं।
7. विधान रचयिता, नियम कर्त्ता, अन्तर्यामी को अधिदैव कह लो।
8. संरक्षण कर्ता, इष्ट देव, अधिदैव को कहते हैं।
9. दुर्गुण तथा सद्गुण यहीं से प्रेरित होते हैं।
10. इन्द्रिय शक्ति विधान यहाँ बनता है। सम्पूर्ण ब्रह्म की शक्तियों के पति को अधिदैव कहते हैं। सम्पूर्ण दैवी शक्तियों के पति को अधिदैव कहते हैं। ब्रह्म का पुरुष भाव, यानि सूक्ष्म भाव अधिदैव है।
अधियज्ञ :
भगवान कहते है, ‘देहधारियों में श्रेष्ठ हे अर्जुन! इस शरीर में मैं ही अधियज्ञ हूँ,’ यानि :
क) शरीर में यज्ञ के पति भगवान हैं।
ख) यज्ञ का संरक्षण करने वाले भगवान हैं।
ग) यज्ञ को उत्पन्न करने वाले भगवान हैं।
घ) निहित रूप में यज्ञ में रहने वाले भगवान हैं।
ङ) यज्ञ का आधार स्वयं भगवान हैं।
च) यज्ञ का केवल मात्र सहारा भगवान हैं।
यज्ञ परम के नाम से ही उत्पन्न होता है, यज्ञ सत् के नाम से ही उत्पन्न होता है। निष्काम कर्म परमात्मा के ही नाम पर किये जाते हैं। निष्काम ज्ञान परमात्मा को जानने के लिये ही पाया जाता है। निष्काम उपासना परमात्मा के गुणों की ही अपने जीवन में प्रस्तुति है। अधियज्ञ स्वरूप परमात्मा जीवों के यज्ञों को मानो स्वीकार करके यज्ञ के परिणाम रूप जीवों को यज्ञशेष देते हैं।
यज्ञ शेष रूप प्रसाद अधियज्ञ स्वरूप भगवान ही देते हैं, यही भगवान का चरणामृत कहलाता है। यज्ञ करने वाला जितना जितना अपने यज्ञ में भगवान का आवाहन करता है, उतना अधिक उसमें निष्काम भाव उत्पन्न होता है और उसके परिणाम स्वरूप वह,
1. गुणातीतता रूपा,
2. उदासीनता रूपा,
3. निर्मोह रूपा,
4. नित्य तृप्ति रूपा,
5. समत्व भाव रूपा,
6. निरासक्ति रूपा,
7. दैवी गुण रूपा,
8. तनत्व भाव अभाव रूपा,
प्रसाद भी पा सकता है। यह सब अधियज्ञ के आधिपत्य में होता है।
देख नन्हीं! केवल जीव की समझ के लिये भगवान उस अखण्ड अक्षर ब्रह्म का विभाजन कर रहे हैं। यह विभाजन वह मानो:
क) जीव को समझाने के लिये कर रहे हैं।
ख) उसको ब्रह्म का स्वभाव समझाने के लिये कर रहे हैं।
ग) जीव का अहं मिटाने के लिये कर रहे हैं।
घ) जीव का संग मिटाने के लिये कर रहे हैं।
ङ) ‘सब वासुदेव ही है,’ यह समझाने के लिये कर रहे हैं।
‘अधिभूत’, यानि, क्षर सृष्टि के मालिक वह आप हैं।
‘अधिदैव,’ यानि, चेतन सृष्टि के मालिक वह आप हैं।
‘अधियज्ञ’, यानि आत्म तत्व भी वह आप हैं।