अध्याय ७
कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता:।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियता: स्वया।।२०।।
यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।२१।।
अब भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. अपने स्वभाव से विवश हुए,
२. विभिन्न कामनाओं के कारण विभ्रान्त मनी,
३. कामना पूर्ण करने के लिये अन्य देवताओं को ध्याते हैं।
४. जो जिसकी इच्छा करता हुआ,
५. जिस भी देवता की श्रद्धा से उपासना करता है,
६. उस भक्त की श्रद्धा मैं उस ही देवता में स्थिर करता हूँ।
तत्व विस्तार :
आत्म प्रिय कमला! भगवान की दृष्टि अपने प्रति ध्यान से देख!
भगवान अपने प्रति :
क) नितान्त मौन रहते हैं।
ख) चाह रहित होते हैं।
ग) गुणातीत होते हैं।
घ) राग द्वेष से सर्वथा अतीत होते हैं।
ङ) उदासीन होते हैं।
च) निरहंकार होते हैं।
छ) नित्य तृप्त होते हैं।
ज) समचित्त होते हैं।
अन्य देवता भजन तथा उसमें भगवान राही लोगों की श्रद्धा स्थिर करना :
देख! भगवान अपने व्यवहार का राज़ समझाते हैं। वह कहते हैं, ‘जो लोग,
1. मुझ में निष्ठा नहीं रखते,
2. मेरी पूजा नहीं करते,
3. जो मुझे नहीं चाहते,
4. जो मैं कहूँ, उससे विपरीत जाते हैं,
5. जो मुझको ही ठुकराते हैं।
6. जो मुझको ही दिल से भुलाते हैं।
7. नित्य मेरा अपमान करते हैं,
8. सब कुछ मैं हूँ, पर सेहरा किसी और को देते हैं,
9. सुख चैन, भोग समिधा, सब मैं ही देता हूँ, किन्तु वे ऐसा नहीं मानते,
10. प्रेम, करुणा, दया मुझ से उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे ऐसा नहीं मानते,
11. सौन्दर्य पूर्ण संसार की रचना मैंने की है, वे ऐसा नहीं मानते,
तब मैं उन्हीं की श्रद्धा के अनुसार उन्हें उनके वांछित फल उपलब्ध करवाता हूँ।
नन्हीं! मौन में भगवान ने सब किया पर दूसरे लोग उन्हें न पहचान कर अन्य विषयों की कामना करते हैं तो भगवान,
क) उन्हीं की कामना पूर्ण कर शक्ति का वर्धन करते हैं।
ख) उन्हीं की कामना पूर्ण कर समिधा उनको देते हैं।
ग) उनकी मान्यता का भंजन नहीं करते।
घ) उन्हीं के सहयोगी बन जाते हैं।
ङ) उन्हीं का समर्थन करते हैं।
यही तत्व का गुह्य विज्ञान है। यही ज्ञान का रूप है।
मेरी आत्म रूप कमला! जीवन में कमल की भान्ति रहकर कमलत्व का प्रमाण दो। अपना नाम तो सार्थक कर लो!
1. ज्यों भगवान वर्तते हैं, वही विधि जीवन में अपना लो।
2. जो तुम चाहती हो, वह सब को दो।
3. जो कोई चाहता है, उसमें उसका साथ दो।
4. गर कुछ और न कर सको तो विघ्न मत डालो।
5. अपनी इच्छा दूजे पर आरोपण करना भला नहीं होता।
6. अपनी बुद्धि को भी किसी पर आरोपित न करो।
7. मन को राहों में मत आने दो, यही ज्ञान का विज्ञान रूप है।
8. किसी की मान्यता भंग न करो। वही करो जीवन में जो भगवान करते हैं। दूसरों की श्रद्धा भंग न करो।
भगवान कहते हैं कि वह लोगों की श्रद्धा उन्हीं के श्रद्धास्पद में स्थित करते हैं, तुम भी वही करो।
इसी में भगवान का स्वरूप निहित है। इसी में भगवान का ज्ञान तथा विज्ञान निहित है।