Chapter 7 Shloka 5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।५।।

This is My Apara Prakriti,

(divided into eight parts);

and Arjuna, different from this,

know My Para Prakriti – the jiva,

through which this entire universe is sustained.

Chapter 7 Shloka 5

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।५।।

Bhagwan says:

This is My Apara Prakriti, (divided into eight parts); and Arjuna, different from this, know My Para Prakriti – the jiva, through which this entire universe is sustained.

Bhagwan says, the five elements – earth, fire, water, air and ether, the mind, intellect and the ego are Brahm’s Apara Prakriti or insentient nature.

a) This is Brahm’s gross nature.

b) This is Brahm’s inert energy.

c) All these are dependent objects.

d) This is that component of Prakriti which can be used and enjoyed.

Brahm’s Apara Prakriti is manifested in the gross – the body, mind and intellect.

Para Prakriti

1. The Para Prakriti is the sentient power of nature.

2. The Atma is said to constitute the Para Prakriti.

3. The Para Prakriti sustains the gross.

4. It is the latent energy of the gross world.

5. Consciousness is a gift of the Para Prakriti.

6. The gates of knowledge fall within the realm of the Apara Prakriti, but the energy that permits the individual to imbibe that knowledge is a constituent of Para Prakriti.

7. The power of the individual to cogitate and reflect is a part of Para Prakriti.

This entire universe is the creation of Brahm. Para and Apara form its two constituents. Equipped with these two tools, Brahm wrought the world.

Little one, if the jiva truly believed that the entire creation is the doing of Prakriti, then he will acknowledge Prakriti to be the principle and sole doer – not the ‘I’ He will also accept that all that transpires happens automatically and within the Lord’s Prakriti. In fact in this context one could say that the Lord is the Supreme Creator and Sustainer of the universe.

Little one, understand this once more. The body of the jiva is inert. The mind of the jiva is also insentient. The jiva’s intellect is inanimate too. The Conscious Principle in all three is Brahm’s Para Prakriti. However, it is necessary to note that Prakriti is basically insentient. The Atma is beyond the Prakriti. Atma is the Essence; Atma and the Supreme AtmaParamatma – are one.

Little one, the Atma – the Supreme Essence of Brahm – pervades this entirety. If one views the world from the point of view of That Supreme Essence, one will be able to understand the connotation of the Para and the Apara Prakriti.

The Atma is neither sentient nor insentient. However, all that is manifest, is manifest within the Atma. The manifestation of the world is dependent on That Atma and is effected through Prakriti.

Thus it could be said Brahm was manifested from the Atma and from Brahm originated the entire Creation. When Brahm created the manifest universe, that Creation was divided into two spheres. These could be called the Para and Apara Prakriti. Both are latent in the Universe. However, little one, this entire operation takes place within the Atma.

अध्याय ७

अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि में पराम्।

जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।५।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. यह (आठ प्रकार के भेदों वाली) तो मेरी अपरा प्रकृति है;

२. और अर्जुन! इससे दूसरी को मेरी जीव स्वरूपा परा प्रकृति जान;

३. जिससे यह जगत धारण किया जाता है।

तत्व विस्तार :

अब भगवान कहते हैं कि पंच महाभूत, मन, बुद्धि और अहंकार, ब्रह्म की अपरा प्रकृति है। यानि,

1. ब्रह्म की जड़ प्रकृति है;

2. ब्रह्म की अचेतन शक्तियाँ हैं;

3. यह सब विषय हैं, यह सब परतंत्र हैं;

4. यह भोग्य अंग है प्रकृति का;

अपरा प्रकृति, जड़ तन, मन और बुद्धि स्थूल रूप धारण करती है।

परा प्रकृति :

क) परा प्रकृति चेतन शक्ति को कहते हैं।

ख) परा प्रकृति आत्म को कहते हैं।

ग) परा प्रकृति मानो जड़ को धारण करती है।

घ) परा प्रकृति मानो जड़ में शक्ति बन कर संचार करती है।

ङ) जिसे ‘होश’ कहते हैं, वह परा प्रकृति की देन कही गई है।

च) बोध का द्वार जड़ होने के कारण अपरा प्रकृति कृत् है। बोध करने की शक्ति परा प्रकृति की देन है।

छ) विचार तथा विमर्श की शक्ति परा शक्ति कहलाती है।

सृष्टि ब्रह्म की रचना है, और परा अपरा इसके दो अंग हैं। ब्रह्म इन दो गुणों के राही सम्पूर्ण संसार को धारण करते हैं।

नन्हीं! यदि जीव यह मान ले कि सम्पूर्ण रचना प्रकृति की ही रचना है तो उसे यह समझ आ जायेगा कि उस प्रकृति के खिलवाड़ में कर्ता प्रकृत्ति है, ‘मैं’ नहीं; और जो कुछ भी हो रहा है, वह स्वत: ही हो रहा है, वह भगवान की प्रकृति में हो रहा है और भगवान की प्रकृति ही कर रही है। इस नाते नन्हीं! सम्पूर्ण संसार को भगवान ही धारण करते हैं।

नन्हीं पुन: समझ! जीव का तन जड़ है, जीव की बुद्धि जड़ है। इन सबमें चेतन शक्ति ब्रह्म का पूरा अंश है किन्तु याद रहे प्रकृति पूर्ण की पूर्ण जड़ है, आत्मा इनसे परे है। आत्मा स्वरूप को कहते हैं। आत्मा और परमात्मा एक ही हैं।

नन्हीं! इसे पुन: समझ! पूर्ण जो है वह आत्म तत्व ही है, वह ब्रह्म तत्व ही है। यदि संसार को भगवान के तत्व के दृष्टिकोण से देखें, तो यह परा अपरा समझ आ सकते हैं।

आत्मा न जड़ है न चेतन है किन्तु जो भी प्रकट हुआ है; उस आत्मा में ही है। सृष्टि प्राकट्य उसी आत्मा के अधीन, मानो उसकी प्रकृति राही हुआ है। आत्मा से मानो ब्रह्म प्रकटे, ब्रह्म से मानो ब्रह्माण्ड प्रकटा। ब्रह्म ने जब ब्रह्माण्ड की रचना की, तो वह दो अंगों में विभाजित से हो गये। इन्हें कहना हो तो परा और अपरा प्रकृति कह लो। ब्रह्माण्ड में परा और अपरा दोनों निहित हैं। किन्तु नन्हीं! यह सब आत्मा में ही हो रहा है।

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