Chapter 7 Shloka 3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:।।३।।

Of thousands of men,

one perchance struggles for union with Me;

and amongst those that strive thus,

one perchance knows My real Essence.

Chapter 7 Shloka 3

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:।।३।।

Speaking of the rarity of this knowledge, the Lord says:

Of thousands of men, one perchance struggles for union with Me; and amongst those that strive thus, one perchance knows My real Essence.

Little one, the Lord states here that, ‘Maybe one out of thousands of people:

a) strives to attain Me;

b) endeavours to unite with Me;

c) makes every effort to be one with Me;

d) seeks to depend on Me;

e) seeks to become like Me.

And then, out of those who do strive thus, perchance only a rare one succeeds in knowing My true Essence.’ In other words, even those who endeavour for Yoga with the Lord:

a) do not succeed in understanding the Lord’s true essence – the Atma;

b) do not know the Lord’s essential identity;

c) do not perceive the Lord as residing in all beings;

d) do not comprehend the reality of the Lord’s essence and form.

Understand the Lord’s words carefully:

1. Only one in many thousands loves Me.

2. Only one in many thousands wishes to know Me.

3. Thousands in this world remain distant from Me.

4. Thousands, who are one with Me in essence, remain in ignorance.

5. Those very people for whom I create this world, do not wish to know Me.

This shloka is a cause of agony for the sadhak. He says:

a) Lord, should I take this to mean that nobody loves You in Your world?

b) You do everything for everybody and nobody even thanks you?

c) You are the Benefactor of all and no one even wishes to know You?

d) You fulfil the desires of all, yet nobody even recognises You?

e) The very people whom You create cause You so much sorrow! They do not even care for You!

f) Lord! How lonely You must be, for You cannot even converse with anyone – there is nobody who can understand the language of Your heart.

g) Lord! You appear to be Bliss Itself, yet Your entire existence seems to be steeped in sorrow.

h) You absorb the sorrow and the sins of others, yet it is only the rare one who knows You.

How incredible is this play of Thine! And then it seems as though the one out of thousands who meditates upon Thee, is also unable to know Thee!

Why does this happen?

Why is Thy Essence so mystical?

Why is it so difficult to reach Thy core?

You take birth again and again. You Yourself admit that Your devotees are also unable to understand You.

Little one, the Lord’s devotees are not to blame.

1. They understand the Lord’s Essence, but not its manifestation in life.

2. They comprehend knowledge – gyan, but not its scientific application in life – vigyan.

3. The Lord’s uniqueness is apparent to them but they cannot understand His ordinary exterior.

4. They can speak of the Atma but they cannot believe how the Atmavaan accepts all beings as manifestations of that same Atma.

5. Even though they may understand the theory of Advaita or non-duality, they cannot relate it with the natural and complete identification of one who abides in that state with his fellow men.

6. Though they understand that the Lord is the Embodiment of compassion and forgiveness, they cannot understand His justice.

Little one, the one who considers himself to be the body, believes that the Lord too, is the body and makes every effort to take His support for the fulfilment of his selfish purposes. The Lord however, does not belong to any one person but to all. It is extremely difficult to understand Him. Little one, He can be known by one:

a) who loves Him deeply and also loves His devotees;

b) who believes that He abides in all beings as the Atma and then strives for the welfare and well-being of all;

c) who shares with others all that he himself desires of the Lord. His constant prayer to the Lord is to enable him to give freely of himself to all.

अध्याय ७

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।

यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:।।३।।

अब भगवान इस ज्ञान की दुर्लभता को सुझाते हुए कहने लगे :

शब्दार्थ :

१. हज़ारों मनुष्यों में से कोई ही मेरी प्राप्ति के लिये यत्न करता है,

२. उन यत्न करने वाले योगियों में भी कोई ही मुझे तत्व से जानता है।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! यहाँ भगवान क्या कहते हैं? इस संसार में हज़ारों में कोई ही,

1. मुझे पाने के यत्न करता है;

2. मुझ से योग करना चाहता है;

3. मुझ से मिलन करना चाहता है;

4. मेरे परायण होना चाहता है;

5. मेरे जैसा होना चाहता है;

और फिर जो मुझसे योग करना भी चाहते हैं, उनमें से भी कोई विरला ही मुझे तत्व से जानता है।

यानि, जो लोग भगवान के साथ योग के प्रयत्न भी करते हैं;

क) वे भी भगवान के आत्म स्वरूप को नहीं समझते।

ख) वे भी भगवान को तत्व रूप से नहीं जानते।

ग) वे भी भगवान के अखिल रूप तत्व को नहीं समझते।

घ) वे भी भगवान को ज्ञान तथा विज्ञान रूप में नहीं समझ पाते।

ज़रा ध्यान से देख, भगवान क्या कह रहे हैं :

1. मुझे इस दुनिया में हज़ारों में कोई एक ही प्यार करता है।

2. मुझे इस दुनिया में हज़ारों में कोई एक ही जानना चाहता है।

3. मुझ से इस दुनिया में हज़ारों लोग बहुत दूर रहते हैं।

4. इस दुनिया में हज़ारों लोग, जो मेरे आत्म स्वरूप हैं, वे भी अज्ञान में रहते हैं।

5. जिनके लिये मैं सम्पूर्ण सृष्टि रचता हूँ, वे लोग मुझे जानना ही पसन्द नहीं करते।

साधक को तो यह श्लोक अनेक बार तड़पा देता है और तड़प कर क्या वह यह नहीं कहेगा :

क) ‘हे भगवान! क्या समझूँ तेरी दुनियाँ में तुझे कोई प्यार नहीं करता?

ख) तू सब के लिये सब कुछ करता है और तेरा कोई धन्यवाद भी नहीं करता!

ग) तू सबका नित्य हित करने वाला है और तुझे कोई जानना भी नहीं चाहता!

घ) तू सबकी माँग पूर्ण करता है और तुझे कोई पहचानना भी नहीं चाहता!

ङ) तू कितना उदास होगा अपने ही जीवों के कारण, जो तुम्हारी ही परवाह नहीं करते।

च) भगवान! आप कितने अकेले हो। आप तो किसी से बात भी नहीं कर सकते क्योंकि आपकी भाषा को कोई समझता भी तो नहीं होगा।

छ) भगवान! ऐसे लगता है कि आप हैं तो आनन्द स्वरूप किन्तु आपका जीवन तो मानो दु:खघन का सा होगा।

ज) आप सबके पाप तथा दु:ख हरने वाले हो, किन्तु आपको कोई विरला ही जानता है।

यह कैसी लीला है भगवान! आप ही समझाईये। फिर भगवान, जो हज़ारों में से कोई एक आपको ध्याता है वह भी आप को नहीं जान सकता। उन आपको ध्याने वाले भक्तों में से भी कोई विरला ही आप को जानता है। ऐसा क्यों होता है?

तुम्हारा तत्व गुप्त क्यों रहता है?

तुम्हारा स्वरूप लुप्त क्यों रहता है?

तुम बार बार जन्म लेते हो, फिर तुम स्वयं कहते हो कि तुम्हारे भक्त भी तुम्हें नहीं समझ सकते।

नन्हीं! इसमें भगवान के भक्तों का भी दोष नहीं।

1. वे भगवान के स्वरूप को तो समझते हैं किन्तु वे भगवान के रूप को नहीं समझते।

2. वे ज्ञान को तो समझ सकते हैं किन्तु विज्ञान को नहीं समझ सकते।

3. वे भागवत् विलक्षणता को तो समझ सकते हैं किन्तु भागवत् साधारणता को नहीं समझ सकते।

4. वे आत्मा की बात तो कर सकते हैं किन्तु आत्मवान् का सबको आत्मरूप जानने का राज़ नहीं समझ सकते।

5. वे अद्वैत का शब्द ज्ञान तो समझ भी लें परन्तु अद्वैत में स्थिति वाले की साधारण जीवों से सहज तद्‍रूपता का राज़ नहीं समझ सकते।

6. वे भगवान के करुणापूर्ण तथा क्षमा रूप को तो समझ सकते हैं किन्तु भगवान के न्याय को नहीं समझ सकते।

नन्हीं! तनधारी जीव, जो अपने आपको तन मानता है, वह भगवान को भी तनधारी मानकर अपना निजी सहयोगी तथा नित्य समर्थक बनाना चाहता है। भगवान एक के नहीं होते, सबके होते हैं। उन्हें समझना बहुत कठिन है। नन्हीं! उन्हें तो वही जान सकते हैं जो,

क) भगवान से अथाह प्रेम करते हैं और भगवान के भक्तों को भी अथाह प्रेम करते हैं।

ख) भगवान को आत्म रूप में सब जीवों में स्थित मानकर, सब जीवों के हितकर बन जाते हैं।

ग) जो वे भगवान से स्वयं चाहते हैं वे औरों को भी वही देते हैं और भगवान से भी नित्य यही प्रार्थना करते हैं कि वह सबको दें।

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