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Chapter 6 Shloka 47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:।।४७।।
Of all yogis, he who possesses faith,
and who devoutly worships Me
with his innermost soul,
with his mind focused upon Me,
is considered by Me to be the best of yogis.
Chapter 6 Shloka 47
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:।।४७।।
Bhagwan says:
Of all yogis, he who possesses faith, and who devoutly worships Me with his innermost soul, with his mind focused upon Me, is considered by Me to be the best of yogis.
Little one, understand first what the Lord means when He says that such a one has ‘his mind focused upon Me’.
Remember, Bhagwan has stated previously:
a) “Even though I am indestructible and unborn, I take birth in subservience to My own Prakriti.” (Chp. 4 Shloka 6)
b) “My birth and deeds are divine.” (Chp.4 Shloka 9)
This means that when the Lord says ‘I’ or ‘Me’:
1. He is referring to the Supreme Atma.
2. He speaks of the eternal, permanent, essence of the Atma.
3. He talks of the divine, pure essence of practical spirituality.
4. He is speaking of the Truth – its core and its manifestation.
5. He speaks of the Embodiment of Truth, Consciousness and Bliss.
The body of the Lord
Do not take this to mean that the Lord’s presence and birth in this world are meaningless.
In fact:
1. His life on earth is a light on spirituality.
2. It is divine and pure knowledge in practice.
3. It is the expansion of the eternal, indestructible Truth.
4. It is an exposition on spiritual life.
In fact, it is only through the life of the Lord that the spiritual aspirant can fully understand the practical application of scriptural tenets – the essence and the manifestation of spiritual living.
Little one, the Lord’s life is the proof of spirituality. It is his life which proves Him to be the highest and supreme amongst men. Having understood the essence of Adhyatam from His life, the sadhak makes that divine Essence his prime aim. For that Essence is in fact the essence of every being.
The Lord says, “That yogi, who is replete with faith and who worships Me with his innermost soul, is indeed the greatest of yogis.” This means, that the yogi who has faith in the Atma Itself, who witnesses That Atma in all beings and thus interacts with the Atma at all times, such a one is exalted by the Lord. Such a yogi knows that all is the Atma. This is his worship of the Atma.
No matter where the mind of that yogi may be, it is immersed in the Atma, which he perceives all around.
Little one, understand carefully. When that yogi perceives no differences between himself and another, knowing all to be the Atma, he naturally identifies with the other. He then makes every endeavour to elevate the other towards the Truth as well. Remember little one, he does this for the other’s benefit, in complete identification with the other’s circumstances, natural attributes and tendencies. The yogi’s endeavours are entirely spontaneous.
This is Advaita or non-duality in practice. This is the true worship of the Lord. The Lord Himself acknowledges such a yogi to be the greatest.
अध्याय ६
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:।।४७।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् योगी,
२. मेरे में लगे हुए अन्तरात्मा से मेरे को भजता है;
३. वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! पहले यह समझ ले कि जब भगवान कहते हैं कि ‘मेरे में चित्त धरे हुए’ तो इससे उनका क्या अभिप्राय है।
देख नन्हीं! भगवान कह कर आये हैं कि :
मैं अविनाशी और अजन्मा होने पर भी प्रकृति को अधीन करके जन्म लेता हूँ। (4/6)
मेरे जन्म तथा कर्म दिव्य हैं। (4/9)
इससे यह समझ ले नन्हीं! भगवान जब ‘मैं’ कहते हैं तो :
क) वह परमात्मा की ओर संकेत कर रहे हैं।
ख) वह नित्य शाश्वत आत्म स्वरूप की बात कर रहे हैं।
ग) वह दिव्य विशुद्ध विज्ञान स्वरूप की बात कर रहे हैं।
घ) वह तत्व रस सार की बात कर रहे हैं।
ङ) वह सत् चित्त आनन्द घन स्वरूप की बात कर रहे हैं।
भगवान का तन :
इससे यह न समझ लेना कि भगवान का तन निरर्थक है।
वास्तव में भगवान का जीवन ही :
1. नित्य अध्यात्म प्रकाश रूप है।
2. दिव्य विशुद्ध विज्ञान रूप है।
3. नित्य अविनाशी तत्व की व्याख्या है।
4. अध्यात्म तत्व की व्याख्या है।
वास्तव में भगवान के जीवन से ही साधक शास्त्रीय तत्व की पूर्णता को समझ सकता है; अध्यात्म के रूप तथा स्वरूप की स्पष्टता को समझ सकता है।
नन्हीं! भगवान का जीवन ही तो भगवान का प्रमाण होता है। भगवान के जीवन से ही तो यह ज्ञात होता है कि वह परम पुरुष पुरुषोत्तम हैं। भगवान के जीवन से अध्यात्म का रूप और स्वरूप समझ कर साधक भगवान के स्वरूप को अपना लक्ष्य बनाता है; क्योंकि वह स्वरूप ही तो जीव का अपना स्वरूप है। भगवान कहते हैं कि सम्पूर्ण योगियों में से जो श्रद्धावान् अन्तरात्मा से मुझे भजता है, वह योगी मेरे लिये परम श्रेष्ठ मान्य है। इसका अर्थ यह है कि जो योगी आत्म तत्व में श्रद्धा रखता है और हर जीव में आत्म तत्व को ही देखता है, इस आत्म तत्व को देखते हुए आत्मा से व्यवहार करता है, वह भगवान को श्रेष्ठ लगता है। वह योगी सबको आत्मा ही जानता है। यही उसका ‘आत्मा का भजन’ है।
उस योगी का मन जहाँ जहाँ जाता है, वहीं वह आत्मा को जानते हुए, उसी में खो जाता है।
नन्हीं! ध्यान से समझ! जब योगी दूसरे और अपने में आत्म एकत्व के कारण भेद नहीं देख सकता, तब वह सहज में ही दूसरे के तद्रूप हो जाता है और दूसरे के गुणों को सत्मय राह पर लाने के प्रयत्न करता है। ध्यान रहे नन्हीं! वह दूसरे के तद्रूप होकर दूसरे के गुणों तथा परिस्थितियों के अनुसार, उन्हें सामने रखता हुआ, दूसरों को उन्हीं के फ़ायदे के लिये सलाह देता है, किन्तु यह सब स्वत: होता है।
यही अद्वैत का व्यावहारिक स्तर पर रूप है। यही भगवान का वास्तविक भजन है।
भगवान कहते हैं, ‘मैं ऐसे योगी को ही श्रेष्ठ मानता हूँ।’
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुन संवादे आत्मसंयमयोगो नाम
षष्टोऽध्याय:।।६।।