Chapter 6 Shloka 45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।४५।।

The yogi, who is devoid of sin

and is constantly striving,

as a result of endeavour and with

the help of latencies of several births,

attains the Supreme state.

Chapter 6 Shloka 45

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।४५।।

The Lord now speaks about the future state of the yoga bhrashta:

The yogi, who is devoid of sin and is constantly striving, as a result of endeavour and with the help of latencies of several births, attains the Supreme state.

Now the Lord says that in this manner, bound by the latencies of several births, that yoga bhrashta once more engaged in the attainment of Yoga, pursues his endeavour once again.

a) Once more he strives to become an Atmavaan.

b) He makes renewed endeavours to transcend the body idea.

c) He once again begins to practice detachment.

d) He tries to attain the Brahmi state once more.

e) He seeks to renounce the idea of doership.

f) He once again sets out to seek unity with the Supreme Lord.

g) He strives also for the annihilation of the ego.

Thus pursuing his sadhana steadily life after life, such a one attains perfection. Thereafter, he attains the Supreme state and becomes an Atmavaan. He himself is then known as ‘Bhagwan’.

Little one, generally sadhana is not accomplished in a single lifetime.

1. The individual performs varied yagyas in different lifetimes.

2. He performs different types of selfless actions in different births.

3. He attains different types of knowledge through various lives.

4. It takes an individual several lifetimes to cognise unity in diversity.

5. He perceives the unity of spirit through the practice of several lifetimes.

6. The understanding that all is Brahm, all is the Atma, also comes to him after several lifetimes of practice.

However, do not take this to mean that all this cannot be accomplished in a single lifetime. You are the recipient of great knowledge in this life. You have received every circumstance that is conducive to sadhana. You have thus received a rare opportunity to become an Atmavaan. There is a warning for those such as you in the Ish Upanishad, shloka 12: “Those who trifle with That Indestructible Supreme Atma meet only with intense darkness.”

Little one, he who knows, understands and also possesses the means for sadhana and who exists in a congenial environment, if such a one loses this rare opportunity, how can he expect anything except complete degradation and darkness? He is a traitor to himself.

अध्याय ६

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिष:।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्।।४५।।

अब भगवान योग भ्रष्ट की आगामी गति के विषय में कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. प्रयत्न से यत्न करता हुआ,

२. पापों से रहित हुआ,

३. और अनेकों जन्मों के अनंतर सिद्ध हुआ योगी;

४. उस साधना के प्रभाव से परम गति को पाता है।

तत्व विस्तार :

अब भगवान कहते हैं, कि इस तरह पूर्व जन्म के संस्कारों से विवश, पुन: योग में लगाया गया वह योगभ्रष्ट, फिर से योग पाने के यत्न करने लग जाता है।

क) वह फिर से आत्मवान् बनने के प्रयत्न करता है;

ख) वह फिर से तनत्व भाव से उठने के प्रयत्न करता है;

ग) वह फिर से निरासक्त होने के प्रयत्न करता है;

घ) वह फिर से ब्राह्मी स्थिति को पाने के प्रयत्न करता है;

ङ) वह फिर से कर्तृत्व भाव त्याग करने के प्रयत्न करता है;

च) वह फिर से परमात्मा से मिलन करने के प्रयत्न करता है;

छ) वह फिर से अहं मिटाव के भी प्रयत्न करता है।

वह शनै: शनै: जन्म जन्मान्तर साधना करते करते सिद्धि को पा जाता है; तत्पश्चात् वह परम गति को पाता है, आत्मवान् बन जाता है। तब वह स्वयं भगवान कहलाता है।

नन्हीं जान! अधिकांश साधना एक ही जन्म में ख़त्म नहीं हो जाती।

1. जीव विभिन्न प्रकार के यज्ञ विभिन्न जन्मों में करता है।

2. जीव विभिन्न प्रकार के निष्काम कर्म विभिन्न जन्मों में करता है।

3. जीव विभिन्न प्रकार के ज्ञान विभिन्न जन्मों में पाता है।

4. जीव भिन्नता में एकता बहुत जन्मों के पश्चात् समझने लगता है।

5. जीव आत्मा की एकता बहुत जन्मों के पश्चात् समझने लगता है।

6. पूर्ण ब्रह्म ही है, यह भी समझ अनेक जन्मों के बाद आती है।

7. सब आत्म रूप ही हैं; यह राज़ भी अनेकों जन्मों के बाद खुलता है।

इससे यह न समझ लेना कि यह सब कुछ एक जन्म में नहीं हो सकता। तुझे तो इस समय महा ज्ञान मिला है। तुझे तो जीवन में हर परिस्थिति अनुकूल मिली है। तुझे तो जीवन में पूर्ण आत्मवान् बनने का मौका मिला है। तुम्हारे जैसों के लिये ईशोपनिषद् में श्लोक 12 में मानो चेतावनी दी है; ‘जो अविनाशी परमात्मा के ज्ञान में रत है, उन्हें तो घोर अन्धकार मिलता है।’

नन्हीं! जो जानता है, समझता है और उसके पास साधन सामग्री भी है और फिर उसे परिस्थिति भी अनुकूल मिली हो यदि वह भी मौका गंवा दे तो उसे अधोगति के सिवा क्या मिल सकता है? वह तो अपना ही गद्दार स्वयं होता है।

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