अध्याय ६
अर्जुन उवाच
अयति: श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।३७।।
अर्जुन पूछने लगे भगवान से कि :
शब्दार्थ :
१. हे कृष्ण! योग से चलायमान हो गया हो मन जिसका,
२. जिसके यत्न शिथिल हो गये हों
३. किन्तु जो श्रद्धायुक्त है,
४. वह योग सिद्धि को न पाकर किस गति को प्राप्त होता है?
तत्व विस्तार :
अर्जुन संशय युक्त हो गये कि यदि महा यत्न के बाद जीव को मन भ्रमित कर दे या चलायमान कर दे, उसके योग की ओर किये हुए यत्न अधूरे रह जायें तो उस जीव का क्या बनेगा? वह तो न इधर का रहा न उधर का रहा।
नन्हीं! पहले ‘अयति:’ का अर्थ समझ ले। अयति: का अर्थ है, अल्प यत्न वाला, अधूरे यत्न वाला, शिथिल यत्न वाला, या जहाँ यत्न में अभाव रह गया हो।
अर्जुन पूछते हैं कि यदि जीव को आत्मा में श्रद्धा भी हो तथा उसने आत्मवान् बनने के यत्न भी किये हों, जो राहों में मन के चलायमान हो जाने के कारण अधूरे रह गये हों; यानि जीव पूर्णतय: योग में स्थित न हो पाया हो और उसके मन ने राहों में ही उसकी साधना भंग कर दी हो, तब उस साधक का क्या होगा? यदि साधक राहों में ही पथ भ्रष्ट हो गया, तो उसका क्या होगा?