Chapter 6 Shlokas 33, 34

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।३३।।

चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

Arjuna says:

O Krishna! The possibility of steadiness in this Yoga of equanimity that you have explained, seems remote on account of the unstable nature of the mind, for without doubt, this mind is restless, troublesome, stubborn and strong. 

Hence I consider it as difficult to control as the wind itself.

Chapter 6 Shlokas 33, 34

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।३३।।

चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

Arjuna says:

O Krishna! The possibility of steadiness in this Yoga of equanimity that you have explained, seems remote on account of the unstable nature of the mind, for without doubt, this mind is restless, troublesome, stubborn and strong. Hence I consider it as difficult to control as the wind itself.

Arjuna says:

1. It seems that Yoga is impossible.

2. Who can control the turbulent mind?

3. Who can curb the stubborn and powerful mind?

4. This mind is the cause of great sorrow.

5. If nobody pays heed to it, it causes great pain.

6. It does not pay any attention to right and wrong; it makes the individual helpless.

7. How can anyone steady this mind?

8. How can anyone tread the path of yoga whilst the mind still persists?

“O Krishna! You speak of such an elevated state as though it could be achieved quite easily, I think it is impossible to achieve any stability in the yoga of equanimity; I consider it as difficult as arresting the wind.”

Arjuna calls the mind turbulent, powerful and stubborn, with a capacity to cause great sorrow. He also says that it is impossible to curb such a mind.

1. How can an individual attain an intellect of equanimity whilst such a mind persists?

2. With the existence of such a mind, how can an individual establish himself in yoga?

3. How can an individual become an Atmavaan whilst equipped with such a mind?

4. How can an individual regard others as his own self whilst possessed of such a mind?

अध्याय ६

अर्जुन उवाच

योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।

एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।३३।।

चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।

अर्जुन कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. हे कृष्ण! जो यह आपने मुझे योग रूप समत्व भाव कहा है,

२. मैं इसकी, मन के चंचल होने के कारण

३. बहु स्थिर स्थिति (की सम्भावना) नहीं देखता हूँ,

४. क्योंकि निस्संदेह, मन चंचल, पीड़ित कर, बहु हठीला और बलवान है,

५. इसलिये इसे वश में करना, मैं वायु की भांति अति कठिन मानता हूँ।

तत्व विस्तार :

अर्जुन कहते हैं :

1. योग असम्भव लगता है।

2. चंचल मन को कौन थाम सकता है।

3. बहु हठीला, बहु बलवान यह मन है, इसको वश में कोई कैसे करे?

4. यह मन महा पीड़ित कर देता है।

5. गर इसकी बात कोई न माने तो यह मन दु:खी कर देता है।

6. उचित अनुचित यह नहीं जानता, यह तो विवश कर देता है इन्सान को।

7. इस मन को कोई स्थिर कैसे कर सकता है?

8. कोई कैसे योग के पथ पर चल सकता है इस मन के रहते?

‘हे कृष्ण! तुम तो बड़ी बड़ी बातें करते हो, मानो यह सहज में हो सकता है। मुझे तो योग में स्थिर स्थिति का पाना असम्भव लगता है। मैं तो समत्व योग में स्थिरता पाना उतना ही कठिन समझता हूँ, जितना वायु को रोकना कठिन है।’

अर्जुन यहाँ मन को चंचल, क्षुभित करने वाला, बलवान तथा हठीला कहते हैं और कहते हैं, ‘ऐसे मन का निरोध करना असम्भव है।’

क) इसके होते हुए जीव समत्व बुद्धि कैसे पा सकता है?

ख) इसके होते हुए जीव योग स्थित कैसे हो सकता है?

ग) इसके होते हुए जीव आत्मवान् कैसे हो सकता है?

घ) इसके होते हुए, जीव दूसरों को अपने समान कैसे समझ सकता है?

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