अध्याय ६
अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्त: साम्येन मधुसूदन।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्।।३३।।
चञ्चलं हि मन: कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।३४।।
अर्जुन कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. हे कृष्ण! जो यह आपने मुझे योग रूप समत्व भाव कहा है,
२. मैं इसकी, मन के चंचल होने के कारण
३. बहु स्थिर स्थिति (की सम्भावना) नहीं देखता हूँ,
४. क्योंकि निस्संदेह, मन चंचल, पीड़ित कर, बहु हठीला और बलवान है,
५. इसलिये इसे वश में करना, मैं वायु की भांति अति कठिन मानता हूँ।
तत्व विस्तार :
अर्जुन कहते हैं :
1. योग असम्भव लगता है।
2. चंचल मन को कौन थाम सकता है।
3. बहु हठीला, बहु बलवान यह मन है, इसको वश में कोई कैसे करे?
4. यह मन महा पीड़ित कर देता है।
5. गर इसकी बात कोई न माने तो यह मन दु:खी कर देता है।
6. उचित अनुचित यह नहीं जानता, यह तो विवश कर देता है इन्सान को।
7. इस मन को कोई स्थिर कैसे कर सकता है?
8. कोई कैसे योग के पथ पर चल सकता है इस मन के रहते?
‘हे कृष्ण! तुम तो बड़ी बड़ी बातें करते हो, मानो यह सहज में हो सकता है। मुझे तो योग में स्थिर स्थिति का पाना असम्भव लगता है। मैं तो समत्व योग में स्थिरता पाना उतना ही कठिन समझता हूँ, जितना वायु को रोकना कठिन है।’
अर्जुन यहाँ मन को चंचल, क्षुभित करने वाला, बलवान तथा हठीला कहते हैं और कहते हैं, ‘ऐसे मन का निरोध करना असम्भव है।’
क) इसके होते हुए जीव समत्व बुद्धि कैसे पा सकता है?
ख) इसके होते हुए जीव योग स्थित कैसे हो सकता है?
ग) इसके होते हुए जीव आत्मवान् कैसे हो सकता है?
घ) इसके होते हुए, जीव दूसरों को अपने समान कैसे समझ सकता है?