Chapter 6 Shloka 32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:।।३२।।

O Arjuna! He who looks on all beings

with the analogy of his own Self and as himself,

regarding their joy and sorrow as his own,

that Yogi is deemed the highest of all.

Chapter 6 Shloka 32

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:।।३२।।

Speaking of the attributes of the Supreme Yogi, the Lord says:

O Arjuna! He who looks on all beings with the analogy of his own Self and as himself, regarding their joy and sorrow as his own, that Yogi is deemed the highest of all.

Little one, a Yogi who is an Atmavaan:

a) sees all beings as his own Self;

b) knows that there are none who are high or low;

c) acknowledges the fact that all that happens, takes place within the Universal law of Brahm;

d) knows that it is qualities which interact with other qualities;

e) realises that from the point of view of the Atma, all are equal;

f) knows from his own analogy that all are the Atma and

g) knows from his internal state that the whole of creation is Brahm.

In practical life,

a) such a one identifies with all beings;

b) embraces the joys and sorrows of the world as his own;

c) for the other, he is ever compassionate, forgiveness itself, the eradicator of sorrows, the cleanser of sin, and one who illuminates the path of Truth. Therefore his very presence is beneficial to all;

d) He is the Supreme Refuge of those who seek refuge.

The Lord says that the Atmavaan Yogi looks upon all the joys and sorrows of the world through his own example. He is considered to be the supreme Yogi, because he regards others’ sorrows as his own and others’ joys as his own. Hence he perpetually strives to assuage the sorrow of others and increase others’ happiness. He seeks the same happiness for others that is dear to him and seeks to lessen sorrow in the lives of others. Therefore, it could be said that such a one identifies with the others’ state and endeavours to bring happiness into their lives.

As for himself, he is personally unaffected by joy and sorrow; However, others are adversely affected by sorrow, due to their identification with the body, and therefore he makes every endeavour to alleviate their pain. The Lord says, “Such a one is the highest Yogi.”

Little one, the Atmavaan knows that the one standing before him is the Atma; he too, is a conglomeration of attributes and has mistakenly identified himself with his body. Ignorance is the cause of his illusion.

However, the Atmavaan is completely forgetful of his body and identifies with whosoever comes before him. He performs actions similar to those of the ignorant, in order to take them steadily forward. These deeds of the Atmavaan are spontaneous and automatic. He does not plan or think out his line of action, nor does he keep an eye on its result.

अध्याय ६

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।

सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:।।३२।।

नन्हीं! अब भगवान, परम योगी के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. हे अर्जुन! जो योगी अपनी ही उपमा देकर,

२. सब भूतों को अपने ही समान देखता है,

३. और उनके दु:ख सुख को अपना ही मानता है,

४. वह योगी परम श्रेष्ठ माना जाता है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं आत्म प्रिया!

जो योगी आत्मवान् हुआ है,

1. वह सबको अपने समान देखता है;

2. वह जानता है कि ऊँचा नीचा कोई नहीं;

3. सब ब्रह्म विधान से हो रहा है, वह ऐसा मानता है;

4. गुण गुणन् में वर्त रहे हैं, यह वह जानता है;

5. आत्मा के दृष्टिकोण से सब समान ही हैं, यह वह जानता है;

6. सब आत्मा ही तो है, यह वह अपनी उपमा से जानता है;

7. पूर्ण ब्रह्माण्ड आत्मा ही तो है, यह वह अपनी स्थिति से जानता है;

जीवन में, दिनचर्या में,

क) वे सब के तद्‍रूप हो जाते हैं।

ख) पूर्ण जग के दु:ख और सुख वे अपना लेते हैं।

ग) दूजे के लिये वे करुणा पूर्ण, क्षमा स्वरूप, दु:ख भंजनी, मल विमोचक, पावन कर, सत् पथ दर्शाने वाले तथा सर्व भूतों के हितकर हो जाते हैं।

घ) जिसको कोई शरण न मिले, उसे वे शरण देते हैं।

भगवान कहते हैं कि वह आत्मवान् योगी अपनी ही उपमा से सर्वत्र दु:ख सुख को सम देखता है। वह परम योगी माना जाता है, यानि वह दूसरों के दु:ख अपने ही मानता है, वह दूसरों की खुशी अपनी ही मानता है, इस कारण वह औरों की दु:ख निवृत्ति में सदा लगा रहता है, इस कारण वह औरों की सुख वृद्धि में सदा लगा रहता है। जो सुख उसे स्वयं प्रिय है, वह दूसरों के लिये वही चाहता है। जो दु:ख उसे स्वयं अप्रिय है, वह दूसरों का दु:ख निवृत्त करने में तत्पर रहता है। यानि, वह दूसरों की स्थिति के तद्‍रूप होकर दूसरों को सुखी बनाने में सदा स्वत: तत्पर रहता है।

स्वयं तो दु:ख सुख में वह सम होता है, परन्तु दूसरे लोग अपने को तन मानते हुए नित्य दु:खी होते रहते हैं, इस कारण वह नित्य दूसरों के दु:ख हरता रहता है। भगवान कहते हैं, ‘ऐसा योगी ही सर्वश्रेष्ठ योगी होता है।’

नन्हीं! आत्मवान् जानता है कि जो उसके सामने खड़ा है, वह भी आत्मा ही है, वह भी गुण पुंज है, वह भी अपने आपको भूल से तन मान रहा है, वह भी अज्ञान के कारण भरमा गया है।

किन्तु नन्हीं देख! आत्मवान् अपने तन को पूर्ण रूप से भूल चुका होता है, जो उसके सामने आये, उसके तद्‍रूप होकर उस अज्ञानी के साथ उस अज्ञानी जैसे कर्म करता हुआ वह उसे शनै: शनै: आगे ले जाता है। यह सब स्वत: होता है; वह न तो सोच विचार कर कार्य प्रणाली का निर्णय करता है, न ही परिणाम पर दृष्टि रखता है।

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