अध्याय ६
यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:।।१९।।
अब भगवान दीपक का दृष्टांत देकर योगी के चित्त की समझाते हैं :
शब्दार्थ :
१. जिस प्रकार वायु रहित स्थान पर स्थित
२. दीपक की लौ चलायमान नहीं होती,
३. वैसी ही उपमा आत्मवान् योगी के चित्त की कही गई है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है और डोलती नहीं, वैसे ही अहं रूप ‘मैं’ के न होने से आत्मवान् का चित्त डोलता नहीं।
आत्मवान् नित्य आत्मा में स्थित,
1. सांसारिक परिस्थितियों से अप्रभावित रहता है।
2. सुख दु:ख से नित्य अप्रभावित रहता है।
3. मान अपमान से नित्य अप्रभावित रहता है।
4. अपने तन की पसन्द या नापसन्द से प्रभावित नहीं होता।
5. अपने तन के गुणों के कारण संसार से मान नहीं चाहता।
6. अपने सम्पूर्ण गुण दूसरों के छोटे छोटे कामों में मुसकरा कर लुटा देता है।
7. विपरीतता में नहीं डोलता।
नित्य समाधि :
नन्हीं! ऐसे योगी गण तो नित्य
क) समाधि में स्थित होते हैं।
ख) अपने प्रति प्रगाढ़ निद्रा में सोये हुए होते हैं।
ग) अपने आपको भुलाये हुए होते हैं।
ऐसे योगी गण को अपनी याद भी तब आती है जब कोई उन्हें याद दिलाता है।
नन्हीं जान्! उन योगियों की यह स्थिति, हर पल, दिन रात होती है। वे दिन रात कार्य कर्म करते हुए इस स्थिति में स्थित होते हैं। वे तो निरन्तर अपने प्रति मौन रहते हैं और अखण्ड मौन धारण किये हुए होते हैं।
किन्तु नन्हीं! यह मौन स्थूल ज़ुबान का मौन नहीं होता। औरों के लिये तो वह बोलता है; औरों के लिये तो वह जान भी देता है; औरों के लिये तो वह अखिल काज भी करता है; किन्तु अपने लिये ही उसकी ज़ुबान नहीं होती। अपने तन के काज अर्थ वह मौन होता है। अपनी पसन्द के प्रति वह मौन होता है, अपने तन के प्रति वह मौन होता है, औरों के प्रति वह मौन नहीं होता लेकिन अपने दु:खों के प्रति वह मौन होता है।
वह नित्य संन्यासी, नित्य समाधि स्थित आत्मवान् औरों के लिये सदा जागता रहता है। अपने लिये वह अखण्ड निद्रा में सोया रहता है।
उसका यह अखण्ड मौन संसार में कोई भी भंग नहीं कर सकता। उसको उसके स्वरूप से कोई नहीं हिला सकता।