अध्याय ६
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते।
नि:स्पृह: सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा।।१८।।
अब भगवान योग युक्त के लक्षण बताते हुए कहने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. जब भली प्रकार से वश में किया हुआ चित्त
२. आत्मा में ही स्थित हो जाता है,
३. उस काल में सम्पूर्ण कामनाओं से इच्छा शून्य हुआ पुरुष
४. युक्त कहा जाता है।
तत्व विस्तार :
अब भगवान योगयुक्त पुरुष के लक्षण बताते हैं और कहते हैं कि जब आत्म संयम पूर्ण तथा युक्त चित्त, आत्मा में स्थिरता से टिक जाता है तब वह पूर्ण कामनाओं में स्पृहा रहित हो जाता है।
नि:स्पृह:
नि:स्पृह: = निर + स्पृहा
‘नि’ का अर्थ है, ‘रहित, अभाव, हानि।’
स्पृहा :
क) स्पृहा का अर्थ है, लालसा या प्रबल कामना।
ख) उत्सुकता को भी स्पृहा कहते हैं।
ग) अभिलाषा को भी स्पृहा कहते हैं।
घ) आर्त भाव से याचना करने को भी स्पृहा कहते हैं।
इसका अर्थ हुआ कि योग युक्त सारी कामनाओं से इच्छा शून्य होते हैं।
इसे ध्यान से समझ नन्हीं!
1. योग युक्त लोगों की भी इन्द्रियाँ होती हैं।
2. योग युक्त लोगों का तन तो वैसा ही है जैसा औरों का होता है।
3. योग युक्त लोगों का तन भी विभिन्न रस के गुणों का भान करता है।
4. योग युक्त लोगों की बुद्धि भी औरों की तरह सब कुछ समझती है।
5. योग युक्त लोगों का मन भी औरों की तरह ही सब अनुभव करता है।
6. योग युक्त लोगों की जिह्वा को भी कुछ पसन्द आता है और कुछ पसन्द नहीं आता।
7. योग युक्त लोग मान अपमान को भी अच्छी तरह समझते हैं।
8. योग युक्त भी हर विषय के गुणों का अनुभव करते हैं।
भेद केवल इतना है कि वे :
क) रुचिकर से राग नहीं करते।
ख) अरुचिकर से द्वेष नहीं करते।
ग) अपनी पसन्द को पाने के यत्न नहीं करते।
घ) घृणात्मक को भी ठुकराने का यत्न नहीं करते।
ङ) मान को पाने के प्रयत्न नहीं करते।
च) अपमान से भागने या बचने के प्रयत्न नहीं करते।
छ) ललचाई हुई नज़रो से अपने प्रेमास्पद को नहीं देखते।
उनका चेत, अर्धचेत और अचेत चित्त कभी भी अपनी कामना पूर्ति के लिये कोई कदम नहीं उठाता।