अध्याय ६
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकाञ्चन:।।८।।
शब्दार्थ :
१. जिसका आत्मा ज्ञान विज्ञान से तृप्त है,
२. जो कूटस्थ है,
३. विजितेन्द्रिय है,
४. जिसके लिये मिट्टी, पत्थर तथा स्वर्ण बराबर है,
५. उसे परम में युक्त योगी कहते हैं।
तत्व विस्तार :
जिसका आत्मा ज्ञान विज्ञान से तृप्त है, यानि :
1. जो नित्य तृप्त आप है।
2. जिसे ज्ञान अथवा विज्ञान की भी आवश्यकता नहीं रहती।
3. जिसे ज्ञान और विज्ञान से भी संग नहीं रहता।
4. जिसे ज्ञान पठन और अध्ययन की भी आवश्यकता नहीं रहती।
5. जिसे ज्ञान में रसना नहीं रहती।
6. जो ज्ञान और विज्ञान के प्रति भी उदासीन हो जाते हैं।
7. जिसे प्रकाश से भी संग नहीं रहता।
8. जिसे आनन्द से भी संग चला जाता है और किसी भी गुण की चाहना नहीं रहती।
9. विज्ञान रूप जीवन में जिसका सत् अभ्यास से संग नहीं रहता।
जो इस स्थिति में अचल, स्थिर हो, वह विजितेन्द्रिय ही होगा। नित्य तृप्त उस आत्मवान् को अब कौन ज्ञान देगा? नन्हीं! वह आत्मवान् अब ज्ञान या विज्ञान को जानकर भी क्या करेगा?
क) ज्ञान विज्ञान तन के नाते ज़रूरी हैं।
ख) तनत्व भाव के त्याग का राज़ जानने के लिये ही ज्ञान और विज्ञान आवश्यक हैं।
जो तनत्व भाव से उठ गया, उसे ज्ञान तथा विज्ञान से क्या प्रयोजन हो सकता है? उसे तन की इन्द्रियों से भी क्या प्रयोजन हो सकता है? विषय उसे क्या सतायेंगे, वह तो तन के नाते ही सताते थे।
आत्मवान् स्वयं निष्कामता की मूर्त और स्वरूप होते हैं। वह तो स्वयं निष्कामता का रूप और प्रमाण होते हैं। आत्मवान् स्वयं निष्कामता की तुला होते हैं। माटी पत्थर या स्वर्ण, उन्हें क्या आकर्षित या प्रतिकर्षित कर सकते हैं? इन सबके प्रति आत्मवान् की दृष्टि सम ही होती है। ऐसे नित्य तृप्त योग युक्त कहलाते हैं।
नन्हीं! वह तो :
1. तनत्व भाव से नितान्त परे होते हैं।
2. संकल्प से रहित होते हैं।
3. नित्य निर्लिप्त होते हैं।
4. नित्य निर्विकार होते हैं।
5. नित्य समदृष्टि होते हैं।
6. चिन्तन तथा चिन्ता रहित होते हैं।
7. नित्य अपने स्वरूप में कूटस्थ रहते हैं।
यानि वह,
8. नित्य अपने स्वरूप में स्थिर रहते हैं।
9. नित्य अपने स्वरूप में अचल रहते हैं।
10. अपने स्वरूप से चलायमान नहीं होते।
11. अपने स्वरूप से कभी नहीं डोलते।
12. उनकी दृष्टि नित्य तत्व पर टिकी रहती है।
13. उनके दृष्टिकोण में ‘मैं’ भाव कभी आ ही नहीं सकता।
14. वह अपने आपको भूले ही रहते हैं।
15. वह आत्मवान् योगी पुरुषोत्तम होते हैं।