अध्याय ५
युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।।१२।।
शब्दार्थ :
१. योग युक्त जीव कर्मफल को त्याग कर निरन्तर शान्ति को पाता है।
२. अयुक्त पुरुष, फल में आसक्त हुआ,
३. कामना के कारण कर्मों में बन्ध जाता है।
तत्व विस्तार :
पहले यह समझ ले कि अयुक्त पुरुष कर्मबद्ध कैसे होता है?
1. तन तद्रूप हुआ, वह अपने तन को ही अपना आप समझता है।
2. वह निज को कर्ता मानता है और कर्म अपनाता है।
3. अपने को भोक्ता कह कर वह भोगी भी बन जाता है।
4. वह ख़ुद को मन, बुद्धि, और इन्द्रियाँ मानता है और अहंकार करता है।
5. वह गुण राज़ जानता नहीं, इस कारण गुणों को अपने गुण मानता है।
6. वह अपना आप पहचानता ही नहीं। स्वरूप को भूल कर वह रूप को अपनाता है।
7. अनन्त चाहनाओं से भरा हुआ वह कर्मों से बन्ध जाता है।
8. वह तृप्त कभी नहीं हो सकता, नित्य अतृप्त ही रहता है।
9. जितना विषयन् को भोगता है, उतनी ही उसकी चाहना और बढ़ जाती है।
10. वह अरुचिकर से पलायन करना चाहता है।
11. वह विषयों के कारण दु:खी सुखी होता रहता है।
12. जब उसे विषय नहीं मिलते तो क्रोध भी उभर आता है।
13. अरोचक विषय मिलें तो रोता है, रोचक विषय बिछुड़ जायें तब रोता है।
14. स्थूल सम्पर्क जहाँ भी हो, वह वहीं पे संग कर लेता है।
15. जड़ कर्म उसको क्या बान्धेंगे? वही कर्म से संग कर लेता है और अपने आप को बांध लेता है।
‘योगयुक्त’ कर्म फल को त्याग कर किस प्रकार निरन्तर शान्ति को प्राप्त होते हैं, इसके विस्तार के लिये द्वितीय अध्याय के श्लोक 50 और 51 को देख लो।