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Chapter 5 Shloka 10
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।१०।।
One who offers all actions to Brahm
and performs action having renounced attachment,
he is untouched by sin,
just as a lotus leaf is untouched by water.
Chapter 5 Shloka 10
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।१०।।
Bhagwan further clarifies:
One who offers all actions to Brahm and performs action having renounced attachment, he is untouched by sin, just as a lotus leaf is untouched by water.
Little one, the Lord is reiterating that he who offers all his actions to the Lord and acts in a spirit of detachment, that one is not tainted by his deeds, just as the lotus leaf that grows in the water, remains unaffected by it.
Understand the connotation of ‘offering all actions to the Lord’:
1. All actions should be performed in a worshipful spirit.
2. They must be done for the sake of the Lord.
3. The Lord must be witness to every action.
4. All actions must be offered at the feet of the Lord.
5. Act, knowing that you are not the doer.
6. All actions are the Lord’s; believing in this, perform all actions as an offering in the fire of yagya.
7. Perform each deed in glorification of the Lord.
The Lord then says, “Perform all deeds having renounced attachment.”
Little one, you do not inhale the fragrance of the flowers before you offer them in the temple. They are a direct offering to the Lord.
a) Therefore the highly elevated Yogis offer their actions at the Lord’s feet without polluting them with the egoistic ‘I’.
b) They do not even let the impurity of doership taint those pure actions.
c) They thus prepare a fragrant garland of pure deeds for the Lord, they do not desire the fruits of their pure deeds for themselves.
d) They perform those actions which will please their Lord. Since each deed is only for the Lord, such elevated souls remain untouched by those deeds.
e) They shed the garb of the body idea and then perform such deeds so that the illusion of the body idea does not taint the deeds they want to surrender to their Lord.
Little one, they who act with the Lord as their witness, their deeds are superlative.
1. They are not influenced by gunas.
2. They do not taint their deeds with doership.
3. They are untouched by actions, knowing that they are controlled by the gunas and occur spontaneously.
4. They are not even attached to their own body; then how can they be attached to the body’s deeds?
5. They surrender their body and all its actions to the Lord.
6. They know that their body belongs to the Lord – they never look at it again.
7. Detached thus, and performing selfless deeds, such a one speedily becomes an Atmavaan.
Such great souls, thus detached from their body and actions, are also uninfluenced by their concepts and ideologies. They have forgotten even their mind and intellect. Such souls are untouched by both sin and virtue.
अध्याय ५
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति य:।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।१०।।
अब भगवान पुन: समझाते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. जो सब कर्मों को ब्रह्म में अर्पित करता है और
२. आसक्ति त्याग कर कर्म कर सकता है,
३. वह पुरुष, कमल के पत्ते के सदृश्
४. पाप से लिपायमान नहीं होता।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! भगवान फिर से वही बात कर रहे हैं कि जो जीव सम्पूर्ण कर्म भगवान के अर्पण करके और आसक्ति रहित होकर करता है, वह कर्मों से लिपायमान नहीं होता; जैसे कमल का पत्ता पानी में रहता हुआ भी गीला नहीं होता।
भगवान पर कर्म अर्पित करने से उनका अभिप्राय समझ लो :
1. उनके प्रति पूज्य भाव रखो।
2. उनको भगवान के निमित्त करो।
3. उन्हें भगवान के साक्षित्व में करो।
4. उन्हें भगवान के चरणों में अर्पित करो।
5. अपने आपको अकर्ता जानकर कर्म करो।
6. हर कार्य भगवान का ही है, ऐसा मानकर, हर कर्म, यज्ञ में आहुति के समान ही करो।
7. हर कर्म भगवान की आरती ही है, ऐसा मानकर करो।
फिर कहते हैं संग त्याग कर कर्मों को करो।
नन्हीं! जब मन्दिर में फूल चढ़ाते हैं, उन्हें पहले सूंघते नहीं। वह तो भगवान के मन्दिर में ज्यों के त्यों चढ़ा दिये जाते हैं। वैसे ही, उच्च कोटि के योग स्थित साधक गण :
क) अपने कर्मों में अपावनकर ‘मैं’ को बिना मिलाये, उन्हें भगवान के चरणों में अर्पित कर देते हैं।
ख) अपने कर्मों में कर्तापन रूपा अपावनता को भी नहीं मिलाते।
ग) भगवान के लिये शुभ कर्मों की माला बनाते हैं, वह अपने लिये शुभ कर्मों का फल नहीं चाहते।
घ) जैसे कर्म भगवान को प्रिय लगें, वह तो वैसे ही कर्म करते हैं; किन्तु केवल भगवान के लिये ही करते हैं, इस कारण उन कर्मों से आसक्त नहीं होते।
ङ) वह तनत्व भाव रूपा वस्त्र उतार कर कर्म करते हैं ताकि तनत्व भाव रूपा मिथ्यात्व उनके भगवान पर अर्पित होने वाले कर्मों को छू न ले।
नन्हीं! जो जीव भगवान को साक्षी बनाकर कर्म करते हैं, उनके कर्म सर्वश्रेष्ठ ही होते हैं।
1. वे गुणों से प्रभावित नहीं होते।
2. वे कर्मों में कर्तापन नहीं भरते।
3. वे गुणों के खिलवाड़ रूपा कर्मों से संग नहीं करते।
4. वे अपने ही तन से भी आसक्ति नहीं करते तो वे तन के कर्मों से आसक्ति कैसे करेंगे?
5. वे अपना तन, कर्मों के सहित भगवान के चरणों में अर्पित करते हैं।
6. वे अपने तन को भगवान का ही मानते हुए उसे अपनाते नहीं।
7. निरासक्त होकर, निष्काम कर्म करते करते वे शीघ्र ही आत्मवान् बन जाते हैं।
जो अपने तन से निर्लिप्त हैं, वे कर्मों से भी नित्य निर्लिप्त रहते हैं। वे लोग अपनी मान्यताओं से भी लिप्त नहीं होते। वे तो अपने तन, मन और बुद्धि को भी भूलने लगते हैं। ऐसों को पाप या पुण्य लिपायमान नहीं करते।