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Chapter 5 Shloka 6
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।६।।
O Arjuna! It is exceedingly difficult
to obtain Sanyas without Yoga. Possessed of Yoga,
the Muni or elevated, spiritual aspirant
speedily attains Brahm.
Chapter 5 Shloka 6
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।६।।
Bhagwan continues:
O Arjuna! It is exceedingly difficult to obtain Sanyas without Yoga. Possessed of Yoga, the Muni or elevated, spiritual aspirant speedily attains Brahm.
1. It is exceedingly difficult, if not impossible, to attain Brahm without Yoga.
2. For most sadhaks it is exceedingly difficult to become an Atmavaan.
To attain equanimity, to transcend duality, to transcend the body idea, to be devoid of doership or enjoyership; to rise above respect and disrespect, or to give up attachment and the idea of ownership; to erase desire and egoism merely through concentration on knowledge is not only extremely difficult, but more or less impossible. Hence it is extremely difficult to attain Sanyas without Yoga.
Only one in a million is able to attain the Atma thus.
a) Such a one would possess an extremely subtle intellect.
b) He would be able to perceive the source of the mind within himself.
c) His intellect would be so shrewd that it would reveal the lacunae of its own mind.
d) He would have the ability to judge himself impartially and even pass a judgement against himself.
e) He would be able to witness and break the knots of his mind-stuff at the conscious, subconscious and unconscious levels.
f) His intellect would be detached from his own mental concepts and remain uninfluenced by them.
g) His intellect would be ever silent and detached towards himself.
My little one! He who harbours pride of possessing such an intellect is most unlikely to achieve Yoga or Sanyas. Little one, think for yourself, what can such an egoistic being achieve? What can the one who believes he has attained the level of the sthit pragya understand? Hence the Lord says, that the path of Yoga shown by Him, is simple as well as one that brings quick results. That is:
1. Perform all actions with total selflessness.
2. Perform actions without attachment.
3. Forget yourself and identify with others, helping them to achieve their objectives.
4. Fulfil all your duties in your daily life.
5. Mould your life in the spirit of yagya.
6. You are the Atma and not the body. Offer your body in the service of others.
7. Accept the fruits of such action with gratitude and joy and partake of it as yagyashesh.
Munis or spiritually elevated souls have also done the same. Through Yoga they speedily attain Brahm. Little one, this is the simple path that yields everlasting joy; by following this path the aspirant very soon becomes an Atmavaan.
अध्याय ५
संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:।
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।६।।
भगवान कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. किन्तु हे अर्जुन! योग के बिना संन्यास प्राप्त होना अति कठिन है।
२. योग युक्त हुए, मुनि लोग शीघ्र ही ब्रह्म को पा लेते हैं।
तत्व विस्तार :
अब भगवान कहते हैं :
1. योग के बिना ब्रह्म को पाना अतीव कठिन है।
2. योग के बिना ब्रह्म को पाना असम्भव ही है। अधिकांश साधक गण के लिये आत्मवान् बनना अतीव कठिन है।
केवल ज्ञान पर ध्यान लगा कर समत्व स्थिति पाना, निर्द्वन्द्व होना, तन से उठना, कर्तृत्व भाव अभाव, भोक्तृत्व भाव मिटाना, मान अपमान से उठ जाना, संग, मम, मोह का त्याग, अहं मिटाना तथा कामना त्याग भी असम्भव है, अतीव कठिन है। इसलिये, बिना योग के संन्यास पाना मुश्किल है।
लाखों में कोई एक होगा, जो आत्म तत्व को शायद पा सके।
क) जो अतीव सूक्ष्म बुद्धि वाला हो।
ख) जो अपने आन्तर में मन के उद्गम स्थान को देख सके।
ग) जिसकी बुद्धि इतनी चतुर तथा दक्ष हो, कि अपने मन को उसकी ग़लतियाँ बता सके।
घ) जो अपने आपको नित्य न्याय की कसौटी पर, निरपेक्षता से न्याय करते हुए मुजरिम ठहरा सके।
ङ) जिसकी बुद्धि, अपने ही चेत, अर्धचेत तथा अचेत चित्त की ग्रन्थियों को देख सके और इनको तोड़ सके।
च) जिसकी बुद्धि अपनी ही मान्यताओं के प्रति उदासीन हो सके उनसे आवृत न हो जाये।
छ) जिसकी बुद्धि अपने प्रति नित्य मौन रहे।
ज) जिसकी बुद्धि अपने प्रति नित्य उदासीन रहे।
मेरी नन्हीं आत्मा! जिसके पास ऐसी बुद्धि होने का गुमान हो वह शायद ही इसे पा सके। नन्हीं! ख़ुद सोच ले, जिसके पास इतना अहंकार होगा, वह क्या पा सकेगा? जो अपने आपको पहले ही स्थित प्रज्ञ समझता है, वह कुछ नहीं समझ सकेगा। इस कारण भगवान कहते हैं कि योग का उन्होंने जो तरीका बताया है, यह आसान भी है और शीघ्र फल देने वाला है।
यानि :
1. निष्काम भाव से कर्म करो;
2. निरासक्त होकर कर्म करो;
3. अपने आपको भूलकर और लोगों के तद्रूप होकर, उनके योजन सफल बनाने के यत्न करो;
4. साधारण जीवन में कर्तव्य परायण होकर कर्म करो;
5. यज्ञमय जीवन बनाओ;
6. तुम आत्मा हो तन नहीं हो, तन औरों के काज अर्थ दान में दे दो;
7. परिणाम में जो मिले, उसे प्रसन्नता से ग्रहण करो और यज्ञशेष का भक्षण करो।
मुनि जन ने भी यही किया। वह योग युक्त होकर ही जल्दी ब्रह्म को पाते हैं। नन्हीं! यही सुगम, सुख तथा नित्य प्रसन्नता देने वाला पथ है। इस राह से जीव शीघ्र ही आत्मवान् हो सकता है।