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Chapter 5 Shloka 4
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
Only the uninstructed child considers Saankhya and Yoga
to be different from each other – not the wise Pandit.
The one who is established in either state
attains the result of both.
Chapter 5 Shloka 4
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
Bhagwan says, O Arjuna!
Only the uninstructed child considers Saankhya and Yoga to be different from each other – not the wise Pandit. The one who is established in either state attains the result of both.
Knowledge and Yoga are synonymous. Without yoga, knowledge is lifeless and yoga without selfless actions is meaningless. If one is the embodiment of gyan, yoga will be one’s natural constitution and yagya one’s spontaneous action. Both knowledge and yoga necessitate purification of one’s mental aberrations and proof of Supreme knowledge in one’s practical life.
1. The life of one established in either will be identical.
2. The consequences of both are the same.
3. The methodology of action of both is alike.
4. Both possess the same knowledge.
5. Theoretical knowledge is translated into a living science through Yoga.
Yoga
1. Yoga is love.
2. Yoga is the highest devotion.
3. It is shraddha or faith.
4. It is affinity for the Supreme Godhead.
5. Yoga is unity with one’s dearest Lord, with Truth Itself. Yoga nurtures devotion within so that one can emulate one’s Supreme Beloved in one’s life.
6. Yoga occurs when the Name of the Lord becomes the sole support of one’s life.
7. When the sadhak places his all at the feet of the Beloved Lord, he ascends the ladder of Nishkam Karma Yoga, or union through selfless action.
8. When the Lord is one’s Eternal Witness, only then can one achieve Yoga; only then can one’s life become a flow of yagya. Then Supreme Knowledge springs from within and one achieves the Supreme state. Without such faith, knowledge remains lifeless and a mere theory.
9. If the Supreme Knowledge of Saankhya is not employed in life, it remains a mere play of words.
Only faith in the form of intense love can transform the knowledge of the Supreme into Yoga, which will then permeate into one’s life. The scholar of Saankhya will reach the Supreme state only when he becomes an Atmavaan.
Saankhya – the knowledge of the Atma.
Saankhya believes in the unity of the individual Atma and the universal Atma. It also believes the entire Universe to be a creation of the threefold attributes of Nature. Thus the entire creation is comprised of these three attributes.
Yoga occurs when the individual renounces his sense of individuality and is established in the Atma.
Sanyas occurs when the individual turns away from his own body, believing himself to be the Atma. If Yoga is to be attained, one has to necessarily distance oneself from one’s own body. Establishment in the Atma leads to sanyas.
a) Yoga inevitably follows sanyas.
b) A Yogi is inevitably an Atmavaan.
c) As such, one’s body and its actions will no longer be one’s own.
He who knows all this, also knows that the result of both Sanyas and Yoga are the same. He also knows of the unity of both.
Saankhya and Knowledge
Little one, Saankhya, having elucidated the knowledge of the Atma, exhorts the jivatma (the individual Atma) to unite with the Universal Atma. Yoga is the culmination of that unity.
Saankhya is knowledge – Yoga is becoming one with that knowledge.
Saankhya is the knowledge of the Supreme, which unifies the Atma and the Paramatma, the Supreme Lord. Yoga is mergence of the Atma in the Paramatma.
Little one, if you accept the knowledge of Saankhya in toto, it will inevitably filter into your life. Even if you believe Yoga to be supreme, the end result will be that you will be established in the Atma – the Essence of the Self.
अध्याय ५
सांख्ययोगौ पृथग्बाला: प्रवदन्ति न पण्डिता:।
एकमप्यास्थित: सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. सांख्य को और योग को बालक ही अलग अलग कहते हैं, पण्डित गण नहीं।
२. एक में भी अच्छी तरह स्थित हुआ,
३. दोनों के फल को पा लेता है।
तत्व विस्तार :
‘ज्ञान और योग’, को ध्यान से समझ नन्हीं!
ज्ञान और योग एक ही बात है। योग के बिना ज्ञान निष्प्राण रह जाता है और क्रिया कर्म के बिना योग तन रहित रह जाता है।
गर ज्ञान स्वरूप है तो योग स्वभाव है और यज्ञ इनका सहज परिणाम है। ज्ञान की बात करो, तो भी मनोमल मंजित कर, जीवन में प्रमाण आवश्यक है। योग की बात भी करो, तो भी मनोमल मंजित कर जीवन में प्रमाण देना अनिवार्य है।
क) जीवन दोनों का समान होता है।
ख) परिणाम दोनों का समान होता है।
ग) कर्म विधि दोनों की समान होती है।
घ) ज्ञान दोनों में समान होता है।
ङ) शब्द ज्ञान योग द्वारा विज्ञान बनता है।
योग :
1. प्रेम का दूसरा नाम योग है।
2. महाभक्ति यह ही है।
3. श्रद्धा इसी का नाम है।
4. परम अनुरक्ति इसी को कहते हैं।
5. अतिशय प्रिय, सत्मय स्वरूप में एकता ही योग है। जीवन में प्रेमास्पद का रूप बनना हो, तो उसमें भक्ति उत्पन्न करने वाला योग ही है।
6. जब जीवन में नाम का आसरा होता है, तब योग होने लगता है।
7. नामी के चरण में जब साधक अपना सर्वस्व धरता है तब वह निष्काम कर्म योग की सीढ़ी चढ़ता है।
8. जब साक्षी नित्य नामी हो तब ही आत्मा से योग हो सकता है; तब जीवन यज्ञमय हो जायेगा। तत्पश्चात् ज्ञान उपजता है और फिर परम स्थिति होती है। सांख्य में गर श्रद्धा नहीं तो ज्ञान केवल शब्द मात्र है।
9. सांख्य गर जीवन में न आया तो केवल शब्द मात्र ही रह जायेगा।
परम ज्ञान में प्रेम रूपा श्रद्धा ही योग दिला सकती है तत्पश्चात् वह जीवन में उतर ही आयेगा। सांख्य ज्ञानी, स्वरूप स्थिति तब ही पायेगा जब आत्मवान् हो जायेगा।
सांख्य :
नन्हीं! सांख्य आत्म का ज्ञान है। सांख्य में आत्मा और जीवात्मा को एक मानते हैं और पूर्ण सृष्टि को त्रिगुणात्मिका शक्ति से रचित तथा त्रैगुण पूर्ण मानते हैं।
योग :
योग तब होता है जब जीव जीवत्व भाव छोड़कर अपने आत्मा में स्थित हो जाता है
संन्यास :
संन्यास तब होता है जब जीव अपने ही तन से मुखड़ा मोड़ लेता है और अपने को आत्मा मानने लगता है। नन्हीं! यदि योगी होना है तो अपने ही तन से वियोग होना अनिवार्य है। जब साधक अपने को आत्मा मानने लगता है तो संन्यास हो ही जाता है।
क) यदि संन्यास हो ही गया तो योग हो ही जायेगा।
ख) जब योग हो ही गया तो तू आत्मवान् बन ही जायेगा।
ग) जब आत्मवान् बन गया तो तन तथा तनो कर्म तुम्हारे नहीं रहेंगे।
जो यह सब जानता है, वह जानता है कि दोनों का फल एक है। वह योग और संन्यास की अभेदता को जानता है।
सांख्य और ज्ञान :
देख नन्हीं! सांख्य भी आत्मा का ज्ञान देकर जीवात्मा को आत्मा के साथ एक होने के लिये कहता है; योग उसी आत्मा से एक कर देता है।
नन्हीं! इस बात का ध्यान रहे, सांख्य ज्ञान है। जो वह कहता है, योग उसी से मिलन का नाम है।
सांख्य परम का ज्ञान है जो आत्मा और परमात्मा को एक करता है। योग परम मिलन को कहते हैं जब आत्मा परमात्मा एक हो जाते हैं।
नन्हीं! यदि तूने ज्ञान को अक्षरश: मान लिया तो वह स्वत: तुम्हारे जीवन में उतर ही आयेगा, यदि तुम योग रूप मिलन को अक्षरश: मान लो तो भी तुम परिणाम में आत्म तत्व में स्थित हो ही जाओगी।