अथ पञ्चमोऽध्याय
अर्जुन उवाच
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।१।।
देख नन्हीं! अर्जुन भगवान की बात नहीं समझे। इस कारण पुन: पूछने लगे कि :
शब्दार्थ :
१. हे कृष्ण! कभी कर्मों के संन्यास को,
२. और फिर कभी योग को सराहते हो,
३. इन दोनों में से एक, जो श्रेष्ठ है,
४. वह ठीक निश्चय से मेरे लिये कहिये।
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं!
1. अर्जुन भगवान की बात को नहीं समझ सके।
2. अर्जुन परब्रह्म के यज्ञ रूप स्वभाव को नहीं समझे।
3. योग और संन्यास में अभेदता को भी वह नहीं समझे।
4. योग और इसके सूक्ष्म राज़ को भी वह नहीं समझे।
5. संन्यास स्वरूप ब्रह्म के यज्ञ को भी वह नहीं समझे।
6. स्वरूप और रूप में भेद होते हुए भी, दोनों में अभेदता का राज़ वह नहीं समझे। वह तो इतना ही समझे कि भगवान ने दोनों की प्रशंसा की है, दोनों को ही सराहा है, दोनों को ही श्रेष्ठ ठहराया है।
7. अर्जुन, ज्ञान और कर्मों के मिलाप का राज़ नहीं समझ सके।
8. आत्मा की बात वह समझ गये किन्तु आत्मा तथा कर्मों के संन्यास का वास्तविक राज़ नहीं समझ सके।
9. योग का स्वरूप तो वह समझ गये किन्तु योग का जीवन में रूप वह नहीं समझ सके।
10. संन्यास और योग को वह पृथक् पृथक् मान गये। इस कारण, अब यहाँ भगवान से अर्जुन पूछने लगे, ‘भगवान! आपने दोनों की प्रशंसा की है, परन्तु मैं किस पथ का अनुसरण करूँ? इन दोनों पथों में से जो कल्याण कारक है, उसे मेरे लिये कहिये, ताकि मैं वही करूँ।’