Chapter 4 Shloka 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।४२।।

Hence O Arjuna,

sever this doubt born of ignorance

which abides in the heart,

using the sword of Self knowledge;

establish yourself in Yoga and engage in battle.

Chapter 4 Shloka 42

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।४२।।

Hence O Arjuna, sever this doubt born of ignorance which abides in the heart, using the sword of Self knowledge; establish yourself in Yoga and engage in battle.

Now Bhagwan advises Arjuna that he should cut asunder all doubts rising out of ignorance with the sword of knowledge of the Self and engage in battle. “Know that you are the Atma and not the body. Thus will you transcend sin and be freed of the bondage of action.”

Little one! You too, must live in this world knowing yourself to be the Atma. Whatever you do bound by the body idea, will be classified as sinful or meritorious and will give you the befitting fruit. If however, you believe the knowledge you have gained to be the Truth, you will develop faith in that knowledge and with the strength of that faith, you will become an Atmavaan.

People fail time and again in Adhyatam – the art of living in the Lord’s spirit, because:

1. They do not realise the eternal bond between knowledge and life.

2. Nor do they understand the mystery of how this world was wrought and is maintained by the unity of Brahm and Prakriti.

3. The bond of Brahm and Prakriti is impregnable. If Brahm is the Essence – the Origin; Prakriti is the form – His external manifestation.

4. You could say that He is the Atma and this Creation is His action, His Eternal yagya.

5. He creates all and is also the Sustainer of all.

6. Abiding in the Atma, the Lord appears in human form and does for this world what Brahm has done for the entire universe. What That limitless, eternal Brahm has done in His magnanimity; the Lord advises man to do, within the limits of his destiny and his capacity. This is Adhyatam – living in the spirit of the Lord.

When man emulates the Divine Nature of Brahm in his life, he reaches the zenith of spiritual living. The nature of Brahm is silence. His actions are yagya. These are the footsteps the sadhak has to follow. Established in the Self, he has to be silent towards himself. His life will then be nothing but yagya. If the jiva understands the secret of Adhyatam in life, then he can manifest the qualities of Brahm in his individualised form.

Little one! Knowledge is meaningless without its practical manifestation. Without practice, all knowledge is nothing but ignorance. You too, must arise and become an Atmavaan! Do not be disturbed by the vagaries of the body.

अध्याय ४

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मन:।

छित्त्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत।।४२।।

अब सब समझा कर भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. इसलिये हे अर्जुन! अज्ञान से उत्पन्न हुए और हृदय में स्थित,

२. इस संशय को आत्म ज्ञान रूपा खड्ग से काट कर,

३. योग में लग।

४. उठ! खड़ा होकर युद्ध कर।

तत्व विस्तार :

अब भगवान अर्जुन से कहते हैं ‘तू आत्म ज्ञान के खड्ग से अज्ञान को काट कर, संशय रहित होकर तथा योग में स्थित होकर उठ! युद्ध कर!’

देख नन्हीं! भगवान यहाँ आत्म ज्ञान को ही ज्ञान कह रहे हैं। वह कहते हैं कि, ‘तू अपने आपको आत्मा मान कर संशय छोड़ कर युद्ध कर। इससे तुझे पाप नहीं लगेगा और तू कर्म बन्धन से मुक्त हो जायेगा।’

नन्हीं! तू भी अपने को आत्मा जान कर जग में विचरा कर। तनत्व भाव से बंधी हुई तू जो भी करेगी, वह पाप कर्म या पुण्य कर्म से बंधा हुआ ही होगा और तुझे पाप या पुण्य रूप फल मिल ही जायेंगे। किन्तु तूने जो ज्ञान सुना और समझा है, यदि इसको तू सत्य मानेगी तो इसमें श्रद्धा उपज आयेगी और उसके बल पर तू आत्मवान् बन जायेगी।

नन्हीं! अध्यात्म इसलिये सफ़ल नहीं होता, क्योंकि आप :

1. सहज जीवन और ज्ञान का अटल सम्बन्ध नहीं समझते।

2. ब्रह्म और प्रकृति का राज़ नहीं समझते कि ब्रह्म और प्रकृति के संयोग से ही सृष्टि कायम है; ब्रह्म और प्रकृति के मिलन से ही सृष्टि की रचना होती है।

3. ब्रह्म और प्रकृति का राज़ तथा सम्बन्ध अटूट है। ब्रह्म स्वरूप कहलो तो सृष्टि ही उसका रूप है।

4. ब्रह्म आत्मा कह लो और सृष्टि कर्म है, सृष्टि ही उसका अखण्ड यज्ञ है।

5. ब्रह्म ही तो पूर्ण सृष्टि का रचयिता है।

6. ब्रह्म ही तो पूर्ण सृष्टि का पालक है।

7. नित्य आत्मा में स्थित, भगवान का तन संसार में वही करता है जो समष्टि में ब्रह्म ने किया।

जो असीम अक्षर ब्रह्म ने अपनी असीमता में किया, वैसे ही असीम तन, अपने गुणों तथा रेखा की सीमा में करे। यही अध्यात्म है।

जब ब्रह्म के स्वभाव को जीव अपने में उतारता है, तब वह अध्यात्म की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है। ब्रह्म का स्वभाव मौन है और कर्म यज्ञ है। साधक को भी यही बनना होता है। उसे भी स्वरूप में स्थित होकर, अपने प्रति मौन रहते हुए जीवन में केवल यज्ञ करना होता है। यदि जीव, जीवन में अध्यात्म का रहस्य जान ले, तब वह व्यक्तिगत रूप में ब्रह्म के समान गुण वाला हो सकता है।

नन्हीं आत्मा! विज्ञान बिना ज्ञान निरर्थक है। विज्ञान बिना सम्पूर्ण ज्ञान अज्ञान ही है। तू भी उठ! और आत्मवान् बन और तन की बातों से व्याकुल न हो।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यासयोगो नाम

चतुर्थोऽध्याय:।।४।।

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