अध्याय ४
एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे।।३२।।
शब्दार्थ :
१. ऐसे अनेक प्रकार के यज्ञ ब्रह्म के मुख से फैले हुए हैं,
२. उन सबको कर्म जम जान।
३. तू ऐसा जान कर, मुक्त हो जायेगा।
तत्व विस्तार :
यह जो यज्ञ कह रहे हैं, ये सब :
1. कर्मों से ही उत्पन्न होते हैं।
2. तन और मन के कर्मों से ही उत्पन्न होते हैं।
3. इनमें कर्ता भी है, भोक्ता भी है, देहात्म बुद्धि भी है, अहं भी है, संग भी है तथा फल चाह भी हैं।
नन्हीं साधिका! यह जान ले कि सम्पूर्ण यज्ञ जो कह रहे हैं :
1. ये गुण बन्धे ही होते हैं।
2. ये त्रिगुणात्मिका शक्ति द्वारा रचित तनोपिण्ड राही स्वत: ही होते हैं।
3. इस दृष्टिकोण से ऊँच नीच कोई नहीं होती, सब समान ही होते हैं।
4. ये यज्ञ रेखा बंधे ही होते हैं। तू यह भी जान ले कि :
क) तू आत्म तत्व है।
ख) तू नित्य अकर्ता है।
ग) तू अभोक्ता आप है।
घ) तू तन रहित, क्या कर्म कर सकती है? कर्म तो गुण स्वत: करते हैं।
ङ) सब करने वाला ब्रह्म आप है।
च) गुण वर्तें गुणन् में, तुम तो केवल गुण खिलवाड़ देख सकते हो।
छ) तन जो भी यज्ञ अपनाता है, तू उसको दूर से देखे जा।
ज) तन तो कुछ न कुछ करेगा ही, तू इसे कर्म करने दे। ‘मैं’ का संग वहाँ नहीं भरना चाहिये।
झ) संग अभाव के पश्चात् तन जो भी करे, वह यज्ञ ही होता है।
ञ) किसी की ग़लती, जो आपके प्रति हुई है, उस पर मुसकरा देना तप है। उसे तप यज्ञ कह लो। अपने अपमान पर मुसकरा देना तप यज्ञ ही है।
ट) अपनी इन्द्रियों को, अपने को भुला कर दूसरे की खुशी के लिये लुटा देना ही सर्वोच्च संयम है। इससे बढ़कर संयम क्या होगा?
ठ) जो आपको ठुकरायें, उन्हें भी अपना लेना यज्ञ है।
ड) जो आपके शत्रु बन कर आयें, उन्हें भी रिझा लेना, इससे बड़ा ज्ञान स्वाध्याय यज्ञ क्या होगा? यज्ञ ‘देने’ को कहते हैं; अपने प्रति उदासीन होने के अभ्यास को कहते हैं।
भगवान कह रहे हैं कि ये जितने भी यज्ञ हैं, यदि तुम इन्हें कर्म जन्य जान लोगे तो तुम्हें इन यज्ञों का राज़ समझ आ जायेगा। ये सब यज्ञ, ब्रह्म के मुखारविन्द से कहे गये वेदों में दिये हुए हैं।
इन यज्ञों के राही जीव :
1. संसार में सुख चैन पा सकता है।
2. देवत्व तक पहुँच सकता है।
3. अपनी तनो शक्तियाँ बढ़ा सकता है।
4. अपने पुण्य कर्मों को बढ़ा सकता है।
5. अपनी बुद्धि को पावन कर सकता है।
ये सब यज्ञ कर्म जन्य हैं। इन यज्ञों को करते हुए, जीव जो गुण अपने में चाहता है पा लेता है। जैसे कोई अभ्यास करता है, वैसे ही वह पाता है।
पर भगवान ने कहा कि यदि इन यज्ञों को तू कर्म जन्य जान लेगा तो तू मुक्त हो जायेगा। ये यज्ञ, जब तू कर्म जन्य जानेगा, तो उनसे संग नहीं करेगा; क्योंकि तू यह भी जान लेगा कि कर्म स्वत: गुणों राही होते हैं और तू गुण नहीं, तू तो निर्गुण अकर्ता आत्मा है।