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Chapter 4 Shloka 31
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम।।३१।।
Now Bhagwan says:
O Arjuna! Those who partake of the nectar
obtained as a residue of Yagya (the yagyashesh),
attain the Eternal Brahm. The one who does not participate
in yagya does not attain even the world of mortals
– let alone any other realm.
Chapter 4 Shloka 31
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम।।३१।।
Now Bhagwan says:
O Arjuna! Those who partake of the nectar obtained as a residue of Yagya (the yagyashesh), attain the Eternal Brahm. The one who does not participate in yagya does not attain even the world of mortals – let alone any other realm.
Praising yagyashesh, the Lord says, “Those who partake of the nectar of yagyashesh, attain the Eternal Brahm.”
1. Yagyashesh is that ambrosia which ensures the attainment of Brahm.
2. Yagyashesh is the essence, by whose intake the individual attains the energy of the Supreme.
3. This elixir is produced through the practice of yagya in life and leads one towards the Atma.
4. The consumption of this pure food induces self forgetfulness.
5. Yagyashesh is that nectar, imbibing which the individual forever loses himself in love for the Supreme.
6. This nectar is the love potion which can make the individual an embodiment of purity.
7. Yagyashesh is that gift of the Gods which establishes its partaker in the heavenly abode.
8. On consuming the yagyashesh, even poison is transformed into nectar, it can no longer lead one to sin.
9. It leads the human being from death to immortality – from darkness to light.
10. Yagyashesh is that nectar, drinking which, one escapes the bondage of actions.
Yagyashesh is the bliss you get from self forgetfulness. Divine actions yield yagyashesh which in turn releases one from bondage with the body idea. At that moment such a one merges in the Eternal Brahm. He becomes an Atmavaan.
Those who do not perform Yagya
The Lord now clarifies that those who do not perform actions in the spirit of yagya, do not attain happiness even in this life – then how can it be ensured in the life beyond?
1. Such people are selfish and blind.
2. They only spread misery in the world.
3. They desert the path of Truth to fulfil their own selfish ends.
4. They perpetrate atrocities for selfish gains.
5. They are greedy and full of desires.
6. They resort to deceit and lies to attain their selfish purpose.
Such people are the cause of the nation’s deteriorating economic and ethical state. Truth is crushed and oppression and discontent increase. Revolutions take place due to the aggravation of selfish tendencies.
Since such non-performers of yagya only spread sorrow, that same unrest and anguish visits their homes also. That is why the Lord warns us that such people will neither experience joy in this mortal world, nor in the future. (For more details on yagyashesh, see Chp.3 shloka 12, 13.)
अध्याय ४
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम।।३१।।
अब भगवान कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! यज्ञों के परिणाम रूप अमृत को भोगने वाले सनातन ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।
२. यज्ञ रहित को यह मनुष्य लोक भी नहीं मिल सकता, फिर दूसरा कहाँ मिलेगा?
तत्व विस्तार :
नन्हीं! अब भगवान पुन: यज्ञशेष को सराहते हुए कहते हैं :
‘जो यज्ञशेष रूपा अमृत खाने वाले होते हैं, वे ब्रह्म को पाते हैं।’
1. यज्ञशेष ही वह अमृत है, जो जीव को ब्रह्म से मिला देता है।
2. यज्ञशेष ही वह रस है, जिसे पीने से जीव ब्राह्मी शक्तियाँ पा जाता है।
3. यज्ञशेष ही वह सोमरस है, जो जीवन में यज्ञ करने से बनता है।
4. यज्ञशेष ही वह अमृत है, जो जीव को आत्मा की ओर ले जाता है।
5. यज्ञशेष ही वह परम पावन अन्न है, जो बेख़ुदी को पुष्टित करता है।
6. यज्ञशेष ही वह अमृत है, जिसे पीकर जीव परम की लग्न में हमेशा के लिये खो जाता है।
7. यज्ञशेष ही वह अमृतमय प्रेम रस का रूप है, जो जीव को पावनता की प्रतिमा बना देता है।
8. यज्ञशेष ही वह अमृत है, जो देवताओं को दिया हुआ वरदान माना जाता है और जिस राही जीव स्वर्ग लोक में रहता है।
9. यज्ञशेष खाने के बाद विषपान भी अमृतमय हो जाता है, वह पाप वर्धक और विषपूर्ण नहीं रहता।
10. यज्ञशेष ही वह सुधा है, जो जीव को मृत्यु से अमरत्व की ओर ले जाती है।
11. यज्ञशेष रूपा अमृत में वह शक्ति है, जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाती है।
12. यज्ञशेष ही वह अमृत है, जिसे पीकर जीव कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।
नन्हीं! अपने आपको भूल कर जो आनन्द मिलता है, वह यज्ञशेष है। देवत्व पूर्ण दैवी कर्म करके ही तो यज्ञशेष मिलता है। इस यज्ञ के परिणाम रूप जीव जीवत्व भाव भी त्याग देता है। तब वह सनातन ब्रह्म में समा जाता है; तब वह आत्मवान् हो जाता है।
अब भगवान कहते हैं कि यज्ञ न करने वालों को तो इस जीवन में भी सुख नहीं मिलता, उन्हें आगे क्या सुख मिलेगा?
यज्ञ न करने वाले :
क) केवल स्वार्थी होते हैं।
ख) केवल अन्धे होते हैं।
ग) जग में दु:ख फैलाने वाले होते हैं।
घ) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये सत्यता का त्याग कर देते हैं।
ङ) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये अनेकों अत्याचार करते हैं।
च) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये अनेकों कुकर्म करते हैं तथा लोभ और तृष्णा पूर्ण हो जाते हैं।
छ) अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये छल कपट तथा मिथ्याचार का आसरा लेते हैं।
इन लोगों के कारण ही देश की आर्थिक और धार्मिक दशा बिगड़ जाती है, देश की सत्यता का नाश हो जाता है और वहाँ स्वार्थ तथा उपद्रव बढ़ने लगते हैं। देश में दर्द, तथा बेचैनी बढ़ती है और क्रान्तिकारी अन्दोलन आरम्भ होते हैं।
जब चहुँ ओर दु:ख ही दु:ख हो तो यज्ञ न करने वालों के अपने ही घरों में दु:ख का प्रवेश हो जाता है और इनका अपना सुख भी नष्ट होने लगता है। ऐसे लोगों को न इस संसार में चैन मिलता है और न ही परलोक का सुख मिल सकता है।