Chapter 4 Shloka 30

अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:।।३०।।

 

Yet others, who regulate their food intake,

offer their Praanas into the Praanas.

All those whose sins have been washed away by the practice

of such yagyas, are cognisant of the meaning of yagya.

Chapter 4 Shloka 30

अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:।।३०।।

Yet others, who regulate their food intake, offer their Praanas into the Praanas. All those whose sins have been washed away by the practice of such yagyas, are cognisant of the meaning of yagya.

A controlled intake of food

Some people believe in reducing their diet to starve their senses and appetite.

1. They think that the resultant debility will limit their attraction to worldly objects and people of the world.

2. They believe that such a limited diet will enable them to obtain mastery over themselves and quieten their minds in this manner.

3. They are convinced that their mind will then not indulge in futile plans, resolves and schemes.

4. When the physical faculties are depleted, the mind will no longer be easily aroused, nor will the sense organs indulge excessively in contact with objects. Then the individual will not engage himself too much in worldly tasks.

In this manner, such people offer their life breath back into the Universal Praanas. They have no further use for life. They speak less and do not take the challenge of completing any job. They tend to prefer a solitary existence.

Little one, even such people appreciate the merit of yagya.

1. They understand yagya in their own way.

2. They know that yagya implies the giving away of some part of oneself.

3. They know that purification of the mind-stuff is essential.

4. They know also that the renunciation of a sinful life and of ego are necessary.

5. They know that the practice of divine qualities is also imperative.

6. They know that the body is steadily moving into the jaws of death and therefore attachment to it is futile.

7. They realise that illusion gives rise to the belief ‘I am the body’.

8. They realise that attachment to sense objects is the primal cause of the individual’s downfall.

9. They realise that the mind should be reactionless and calm.

a) Therefore, these practicants of yagya do not indulge in sinful deeds.

b) They perform meritorious deeds.

c) They try not to inflict sorrow upon others.

d) Each participates in yagya in accordance with his belief and nature.

e) Yet they are all of a temperate constitution.

f) They all seek to reach the Lord in their own way.

g) They are persevering in the pursuance of their own methods of sadhana.

h) They are very knowledgeable and wise.

i) They are also extremely knowledgeable about their chosen path.

Such people have a singular goal – the attainment of Truth – although the methods they adopt may be different. When they reach the zenith in their method of sadhana, they have to conduct their yagya in the world. The ultimate offering of each yagya is giving one’s mind to the world. Self forgetfulness and establishment in the Ultimate Essence are synonymous. All the yagyas mentioned so far are in the context of various stages of life. They are natural appendages of the One who is established in the Atma. Whatever he does, whatever he sees, whatever he says, are all imbued with the spirit of yagya. He is silence itself, yet his every word is as potent with Truth as the Vedas.

अध्याय ४

अपरे नियताहारा: प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।

सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषा:।।३०।।

भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. नियत आहार करने वाले अन्य गण,

२. प्राणों को प्राणों में ही हवन करते हैं।

३. इस प्रकार यज्ञों द्वारा नाश हो गये हैं पाप जिनके,

४. वे सब ही पुरुष यज्ञों को जानने वाले होते हैं।

तत्व विस्तार :

अब भगवान कहते हैं, कई लोग नियत आहार खाते हुए अपनी जठर अग्नि और इन्द्रिय बल को कम करने के यत्न करते हैं।

नियमित आहार :

1. ऐसे लोग समझते हैं कि कम खाने से इन्द्रियों की शक्ति क्षीण पड़ जायेगी।

2. तब वे बाहर के विषयों में कम भ्रमण करेंगे और बाहर के लोगों से भी कम सम्पर्क रखेंगे।

3. वे सोचते हैं कि नियमित आहार से वे अपने जीवन में प्रभुत्व पा सकेंगे, तथा नियमित आहार से मन भी शांत तथा उद्विग्नता रहित रहेगा।

4. उनके विचार में नियमित आहार से इस मन को बहुत संकल्प विकल्प भी नहीं भरमा सकेंगे।

5. जब शरीर के अंगों की शक्ति क्षीण पड़ जायेगी, तब न ही मन उत्तेजित रहेगा और न ही इन्द्रियाँ बहुत विषयों का सम्पर्क कर सकेंगी। तब जीव जग के कार्यों में अधिक प्रवृत्त नहीं हो सकेगा।

यह तो मानो प्राणों की आहुति, वापस प्राणों मे ही दे रहे होते हैं। यानि, इन्हें प्राण नहीं चाहियें। इन्हें जीवन से कोई प्रयोजन नहीं। ये लोग कम बोलते हैं और किसी कार्य की सिद्धि का बीड़ा कम ही उठाते हैं। ये लोग एकान्त सेवी होते हैं।

अब नन्हीं! यह समझ ले कि ये सब यज्ञवित् हैं।

क) अपने ढंग से ये सब यज्ञों को जानने वाले होते हैं।

ख) इन्हें यह ज्ञात होता है कि अपना कुछ अंश किसी को देना ही होता है।

ग) ये सब जानते हैं कि चित्त शुद्ध करना अनिवार्य है।

घ) पाप पूर्ण जीवन का और अहंकार का त्याग करना ही चाहिये।

ङ) दैवी सम्पदा को उपार्जित करना ही चाहिये।

च) तन मृत्यु धर्मा है इसलिये तनो आसक्ति का अभाव करना ही चाहिये।

छ) तनत्व भाव मिथ्यात्व के कारण होता है।

ज) विषय आसक्ति ही जीव का पतन करवाती है।

झ) जीव के मन में उद्विग्नता नहीं होनी चाहिये।

नन्हीं! ये सब यज्ञ करने वाले :

1. पाप नहीं करते।

2. शुभ कर्म ही करते हैं।

3. नाहक औरों को दु:ख नहीं देना चाहते।

4. अपनी अपनी मान्यता तथा स्वभाव अनुकूल ही यज्ञ करते हैं।

5. ये लोग अपनी अपनी बुद्धि के गुणों के अनुसार ही यज्ञ करते हैं।

6. ये लोग सौम्य ही होते हैं।

7. ये सब अपने अपने ढंग से भगवान को ही पाना चाहते हैं।

8. अपनी अपनी रुचिकर विधि में ये लोग भी महा प्रयत्नशील होते हैं।

9. अपनी अपनी साधना की प्रतिक्रियाओं का बड़े नियम से अनुसरण करने वाले होते हैं।

10. ये लोग बुद्धिमान् तथा विद्वान् होते हैं।

11. ये लोग अपनी साधना की विधि में दक्ष तथा निपुण होते हैं।

12. अपने मनभावन पथ के बारे में ये बहुत कुछ जानते हैं।

और नन्हीं! एक बात का ध्यान रहे, ये सब एक ही लक्ष्य वाले होते हैं। ये सब सत् ही चाहते हैं, उसको पाने के लिये विधि चाहे जो भी अपना लें।

फिर आगे सुन नन्हीं! ये जब अपनी अपनी साधना विधि में पराकाष्ठा को पा लेते हैं, तब इन्हें भी संसार में ही यज्ञ करना होता है।

नन्हीं! संसार को मन का दान देना ही हर यज्ञ की अन्तिम आहुति है। आत्म विस्मृति तथा स्वरूप की स्थिति एक ही बात है, किन्तु ज्यों यज्ञ विवेक में कह आये हैं, ये सम्पूर्ण यज्ञ जीवन के विभिन्न पहलुओं के विषय में होते हैं।

यज्ञ स्वरूप इन सम्पूर्ण यज्ञों को पाते हैं। आत्मवान् में ये सम्पूर्ण यज्ञ सहज रूप में निहित होते हैं। वे जो भी करें, वे जो भी कहें, वे जो भी देखें, वह सब यज्ञ ही है। नन्हीं! स्वरूप आत्मा है, तो रूप यज्ञ है।

ऐसे लोगों का मन मौन होता है और हर वाक् वेद ही होता है।

Copyright © 2024, Arpana Trust
Site   designed  , developed   &   maintained   by   www.mindmyweb.com .
image01