Chapter 4 Shloka 27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।२७।।

 

Many others burn all the actions of

their sense organs and of their praanas (life breath)

in the fire of self discipline

which is illumined by true knowledge

and leads to Yoga.

Chapter 4 Shloka 27

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।२७।।

Many others burn all the actions of their sense organs and of their praanas (life breath) in the fire of self discipline which is illumined by true knowledge and leads to Yoga.

Little one, self discipline, too, is that flame of knowledge, igniting which, one attains yoga (union). Through this yagya, many a sadhak burns all the actions of his organs of perception and action in the fire of self control. He also endeavours to purify the five praanas that constantly function within his body in the fire of knowledge.

Such people constantly endeavour to:

1. Render their sense organs and praanas impotent.

2. Bring their sense organs and praanas in their control.

3. Make their sense organs and praanas inactive.

4. Make their sense organs and praanas dependent on them.

Such people establish their mastery over the activities of their faculties. Their faculties are under their control. They have understood that:

a) the world is transitory;

b) pain and pleasure are born of sense contact;

c) the body must die;

d) the external world is merely a play of the gunas;

e) the Atma is eternal and indestructible.

The sadhak thus strives to quell his attachment from every such object with which the body had associated itself through sense contact, guided by its desire and liking.

When the mind proceeds towards Self realisation:

a) Attachment with gross objects automatically begins to fade.

b) Pleasure in gross objects decreases.

As this knowledge grows and the mind becomes attached with that luminous knowledge of the Truth, one’s affinity with the sense objects and the consequent effort to attain them, fades. To a great extent, such sadhaks try to distance their sense organs from sense objects.

अध्याय ४

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।

आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते।।२७।।

भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. और कई एक सर्व इन्द्रिय के कर्मों तथा प्राण के कर्मों को,

२. ज्ञान से प्रज्वलित योग को उत्पन्न करने वाली,

३. आत्म संयम रूपा अग्न में जलाते हैं।

तत्व विस्तार :

मेरी नन्हीं जाने जान्! आत्म संयम भी वह ज्ञान अग्न है जिस राह से योग सफ़ल हो सकता है। यहाँ भगवान कहते हैं कि कई साधक अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियों की क्रियाओं को, (जो संसार से स्पर्श करती हैं और विभिन्न काज कर्म करती हैं, उनको) संयम रूप अग्न में जलाते हैं। अपने तन के अन्दर जो पाँच प्राण क्रिया करते हैं, उन्हें भी ज्ञान रूप अग्न में भस्म करने के प्रयत्न करते हैं।

नन्हीं! ये लोग निरन्तर अपनी :

1. इन्द्रियों तथा प्राणों को निरुद्ध करने के यत्न करते हैं।

2. इन्द्रियों तथा प्राणों को अपने वश में करने के यत्न करते हैं।

3. इन्द्रियों तथा प्राणों को निष्क्रिय करने के यत्न करते हैं।

4. इन्द्रियों तथा प्राणों की क्रियाओं को अपने अधीन करना चाहते हैं।

5. ये लोग पूर्ण तन की क्रियाओं पर अपना राज्य स्थापित करते हैं।

6. इनकी इन्द्रियाँ इनके वश में हो जाती हैं। इन्होंने ज्ञान से जाना, कि :

क) सारा जग स्पर्श मात्र ही है।

ख) सुख दु:ख भी स्पर्श जन्य ही हैं।

ग) तन मृत्यु धर्मा है।

घ) बाह्य जग गुणों का खिलवाड़ है।

ङ) आत्मा अमर है, अजर है और अक्षर है।

तनो इन्द्रिय स्पर्श राही, जहाँ जहाँ रुचि के कारण संग हो गया है, साधक उस संग को खेंचने लगता है, उसे शनै: शनै: वर्जित करने लगता है। मन जब आत्म ज्ञान की ओर बढ़ता है तो वास्तव में :

1. स्थूल विषयों से संग स्वत: ही कम होने लगता है।

2. स्थूल विषयों में रुचि स्वत: ही कम होने लगती है।

ज्यों ज्यों ज्ञान बढ़ता है और मन का उस सत् ज्ञान से संग बढ़ता है, त्यों त्यों स्थूल विषयों और क्रियाओं से संग छूट जाता है। ऐसे साधक अधिकांश इन्द्रियों को विषयों से दूर करने के यत्न करते हैं।

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