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Chapter 4 Shloka 22
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।
Such a one is ever content
with whatever comes unsought;
transcending all dualities and free of jealousy,
unaffected by success and failure, doing all actions,
such a one is not bound by his actions.
Chapter 4 Shloka 22
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।
Describing the characteristics of an Atmavaan, the Lord says:
Such a one is ever content with whatever comes unsought; transcending all dualities and free of jealousy, unaffected by success and failure, doing all actions, such a one is not bound by his actions.
To understand the life of an Atmavaan, it is necessary to understand the connotation of Yadrichcha (यदृच्छा).
Little one, since the Atmavaan performs only selfless action and cares not for his own body, how does he survive? The Lord clarifies here, that such a one is satiated with what he receives:
a) by the force of circumstances;
b) unexpectedly;
c) spontaneously;
d) awarded to him of its own accord;
e) through Divine Providence.
How does the one established in selflessness survive?
Little one, such an Atmavaan does the jobs of others with a selfless attitude. He asks for nothing from the other in return for the work done. Nor does he have any hopes or expectations of the other. Then how does he survive? Such a one is happy with whatever his destiny or providence grants him.
Seeing these qualities many people:
a) begin to love such a one;
b) feel faith or reverence for such a one;
c) long to do justice towards such a one;
d) begin to love the Truth;
e) are ignited with a sense of generosity or compassion towards such a one.
Their reverence prompts them to make an offering to the selfless one.
The selfless one however, does not live on any such expectations from them. He never asks for anything nor does he seek any payment or compensation from those he serves. Whatever he gets is:
a) what fate has in store for him;
b) what others give spontaneously;
c) what flows as a result of their goodness;
d) the result of their love;
e) the fruit of their devotion.
Such a one is content with this.
Now understand Dvandvatit (द्वन्द्वातीत). The Lord says that such a one is a dvandvatit – one who has transcended duality.
Duality
1. Duality arises when there are opposing gunas in a situation.
2. Duality can lie in two opposing objects.
3. Duality can lie in two opposing circumstances.
4. Duality can lie in two opposing results.
5. Duality can arise from two contradictory thoughts.
6. Problems fraught with duality can make it difficult for a person to take a decision.
7. In such cases, the mind becomes indecisive as to which path to take when two opposite paths of action confront him.
8. When the mind likes objects which possess qualities opposed to each other, the individual is confronted by duality.
9. The dilemma of duality arises when one has to choose between two people, both of whom are dear to one!
10. Sorrow and joy, night and day, the path of virtue and the path of vice, success and failure, victory and defeat, knowledge and ignorance, progression and regression, attraction and repulsion – all are dualities. All these create duality in the mind.
The consequence of duality
1. Duality causes perturbance in the mind.
2. The mind becomes agitated.
3. Conflicts arise in the mind.
4. The mind becomes bewildered and distressed.
5. Fear sets in.
6. The intellect is confused.
The Dvandvatit is one:
a) who is unaffected by duality;
b) who is not agitated by duality;
c) who is not carried away by situations fraught with duality;
d) whose intellect is untouched by duality;
e) who maintains an impartial attitude towards good and bad – whatever may come his way.
It is only the one who possesses equanimity who transcends duality.
Now understand Vimatsar (विमत्सर):
Matsar means one with a jealous mind.
Matsar is one who performs evil deeds.
Matsar is one who is greedy, stubborn and who harbours enmities.
Matsar is one in whom demonical qualities predominate.
Vimatsar is one who is devoid of the aberrations mentioned above. He is devoid of all demonic attributes and imbued with divinity. He possesses an attitude of equanimity towards success and failure. Such a one is not bound by the deeds he performs. (For Siddhi – Asiddhi, success and failure, see Chapter 2, Shloka 48)
अध्याय ४
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते।।२२।।
आत्मवान् के चिह्न बताते हुए भगवान आगे कहते हैं, कि :
शब्दार्थ :
१. अपने आपको जो कुछ उन्हें मिल जाये, उसी से संतुष्ट रहने वाला,
२. द्वन्द्वातीत हुआ तथा ईर्ष्या से रहित हुआ,
३. सिद्धि और असिद्धि में सम भाव वाला,
४. कर्म करता हुआ भी कर्मों से नहीं बन्धता।
तत्व विस्तार :
आत्मवान् का जीवन समझने के लिये ‘यदृच्छा’ को प्रथम समझ ले :
नन्हीं! जब आत्मवान् पूर्णतय: निष्काम कर्म करते हैं और अपने तन की परवाह नहीं करते, तो वे जीते कैसे हैं? उनके लिये यहाँ कहते हैं, कि ‘वे यदृच्छा लाभ में संतुष्ट रहते हैं।’
‘यदृच्छा’ का अर्थ है :
1. संयोगवश जो मिल जाये,
2. अकस्मात् जो मिल जाये,
3. स्वत: स्फुरित जो मिल जाये,
4. जो भी स्वपुरस्कृत हो,
5. जो दैव वश मिल जाये।
निष्काम भाव स्थित कैसे जीते हैं :
नन्हीं! ऐसे आत्मवान् जीव लोगों के काम निष्काम भाव से करते रहते हैं। वे उनसे कार्य के प्रतिरूप में कुछ माँगते नहीं। उनसे कुछ आशा भी नहीं रखते। तो फिर यह प्रश्न उठता है कि ऐसे लोग जीते कैसे हैं?
नन्हीं! ऐसे लोगों को जो भी भाग्यवश मिल जाता है, उसी में वे संतुष्ट रहते हैं। ऐसे लोगों को जो भी दैव योग से मिल जाता है, उसी में वे संतुष्ट रहते हैं।
कई लोगों को ऐसे गुण देख कर :
1. इनसे प्रेम हो जाता है।
2. इनके लिये श्रद्धा उमड़ आती है।
3. इनसे न्याय करने की भावना उठ आती है।
4. सत्प्रिय हो जाते हैं।
5. आन्तर में उनके प्रति उदारता तथा करुणा उठ आती है।
वह लोग, इन्हें जो भी अपनी श्रद्धा में चाहें, अर्पित करते हैं।
किन्तु याद रहे यह निष्काम कर्म करने वाले लोग न ही कहीं से आशा रखते हैं, न ही कहीं से याचना करते हैं और न ही किसी से बदला माँगते हैं।
इन्हें जो भी मिलता है :
क) भाग्यवश ही मिलता है।
ख) दूसरे से स्वत: स्फुरित ही मिलता है।
ग) दूसरों के सतीत्व से बहा हुआ ही मिलता है।
घ) प्रेम का प्रसाद ही मिलता है।
ङ) दूसरों की श्रद्धा का प्रसाद ही मिलता है। ये लोग इतने में ही संतुष्ट रहते हैं।
अब ‘द्वन्द्वातीत’ को समझ ले :
द्वन्द्व :
1. किसी अवस्था के विपरीत गुणों को कहते हैं।
2. दो विरोधी गुणों को कहते हैं।
3. दो विरोधी गुण पूर्ण विषयों को कहते हैं।
4. दो विरोधी अवस्थाओं को कहते हैं।
5. दो विरोधात्मक परिणामों को कहते हैं।
6. विपरीत अर्थी भावों को कहते हैं।
7. द्वन्द्वपूर्ण समस्यायें भी होती हैं, जिनके कारण जीव निर्णय नहीं ले सकता।
8. द्वन्द्वपूर्ण मन हो जाता है, जब दो विपरीत परिणाम वाले पथ सामने आ जाते हैं और वह समझ नहीं पाता कि वह किस पथ का अनुसरण करे।
9. जब विपरीत गुण पूर्ण दो विषय मन को प्रिय हो जाते हैं, तो यह द्वन्द्वपूर्ण हो जाता है।
10. जब दो व्यक्तियों में से एक को चुनना पड़े, जब कि दोनों ही प्रिय हों, तब द्वन्द्व उठ आते हैं।
11. जैसे : सुख दु:ख, दिन रात, श्रेय प्रेय, सिद्धि असिद्धि, जय पराजय, ज्ञान अज्ञान, निवृत्ति प्रवृत्ति, राग द्वेष इत्यादि ये सब द्वन्द्व ही हैं और मानसिक द्वन्द्व कारक भी हैं।
द्वन्द्व परिणाम :
द्वन्द्व के कारण ही :
1. मन इतना व्याकुल हो जाता है।
2. मन में क्षोभ उठ आता है।
3. मन में लड़ाई झगड़ा शुरू हो जाता है।
4. मन विमूढ़ हो जाता है।
5. मन तड़प जाता है।
6. मन घबरा जाता है।
7. बुद्धि विभ्रान्त हो जाती है।
द्वन्द्वातीत वह होगा, जो जीवन में :
क) द्वन्द्वों से प्रभावित न हो।
ख) द्वन्द्वों से विचलित न हो।
ग) द्वन्द्वों से चलायमान न हो।
घ) जिसकी बुद्धि द्वन्द्वों से प्रभावित न हो।
ङ) जिसे शुभ या अशुभ जो भी मिले, वह उसके प्रति निरपेक्ष दृष्टि रखने वाला हो।
नन्हीं! समदर्शी ही द्वन्द्वातीत होते हैं। अब ‘विमत्सर’ को समझ ले :
मत्सर का अर्थ है :
1. ईर्षालु मन वाला।
2. दुष्ट कर्म करने वाला।
3. लोभी मन वाला।
4. डाह करने वाला।
5. शत्रुता करने वाला।
6. आसुरी गुण प्रधान।
‘विमत्सर’ वह होगा, जो इन ऊपर कहे गुणों से रहित होगा, जो आसुरी गुणों से रहित होगा, जो दैवी गुणों से भरपूर होगा तथा जो सिद्धि असिद्धि के प्रति सम होगा। वह कर्म करते हुए भी कर्मों से नहीं बन्धता है।
(सिद्धि असिद्धि के विवरण के लिये द्वितीय अध्याय का श्लोक 48 देखिये।)