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Chapter 4 Shloka 21
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।२१।।
He who is free from expectation,
with mind and Atma well controlled,
who has renounced all external supports,
that one, performing all actions with his body,
does not incur sin.
Chapter 4 Shloka 21
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।२१।।
Now Bhagwan speaks about the attributes and signs of one who does not incur sin. He says:
He who is free from expectation, with mind and Atma well controlled, who has renounced all external supports, that one, performing all actions with his body, does not incur sin.
The state of an Atmavaan – Tyakta Sarva Parigrah (त्यक्तसर्वपरिग्रह)
It is the mind which accumulates objects from the external world. The one who renounces ‘all external supports’ – Tyakta sarva parigrah, has in actual fact:
a) renounced the mind’s family of traits;
b) renounced the mind’s collection of desires;
c) renounced his concepts;
d) burst asunder his mental knots;
e) given up the support of his intellectual resources;
f) given up the body’s hold on him;
g) removed the power of ‘I’ and ‘mine’ over him.
Such a one is an Atmavaan. What can he possibly hope for from anyone? For whom would he crave any object? He seeks neither wealth, nor recognition, nor even knowledge. He does not desire any fruits of action.
Look at it from another angle: the people for whom the Atmavaan is doing everything, are only seeking fulfilment of their personal desires. The Atmavaan knows that these poor, unsatiated ‘beggars’, whose boundless appetite will never cease, cannot give him anything. So he is always the giver, totally devoid of any expectations or hopes, eternally content; such a one is nirashraya – free of all dependencies.
Only the body of such a one performs actions
Such a one is galvanised into action by whosoever comes before him. He mirrors the other’s need and plunges into action. He is never prompted into action through any need to fulfil his own desire. Actually, he has no desires of his own, therefore he cannot motivate his body to perform actions for personal benefit. And it is his body which is ever engaged in action, whilst his Atma remains ever unaffected. Thus, such a one is completely detached from the actions of the body and is never tainted by sin.
Such people perform actions only with the body. Their mind never interferes with their actions. However, one must not take this to mean that:
a) their sense organs have given up their natural functions;
b) they do not know the difference between good and bad;
c) their liking has ceased;
d) they can no longer distinguish between sweet and sour etc.
If that had been so they could not have effectively discharged the jobs of others. Remember, they are extremely shrewd and able, they are no fools. They catch the subtlest thought and even the minutest change in the other’s attitude. The only difference is that they do not impose their likes and dislikes on others. They merely serve others and are pleased and joyful with whatever they receive.
अध्याय ४
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रह:।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।२१।।
भगवान पुन: उस मनुष्य के गुण तथा चिह्न बताते हैं, जो पाप को प्राप्त नहीं होता और कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. आशा रहित,
२. वश में किये हुए चित्त और आत्मा वाला,
३. सम्पूर्ण परिग्रह को जिसने त्याग दिया है,
४. वह पुरुष, केवल शरीर से कर्म करता हुआ,
५. पाप को प्राप्त नहीं होता।
तत्व विस्तार :
आत्मवान् की स्थिति :
नन्हीं! प्रथम ‘त्यक्तसर्वपरिग्रह’ को समझ लो।
मन ने ही विषयों को संग्रहित किया हुआ होता है; तो ‘परिग्रह’ के त्याग का अर्थ है :
1. जिसने मन के वृत्ति कुल का त्याग कर दिया है।
2. जिसने मन के कामना पुंज का त्याग कर दिया है।
3. जिसने अपनी मान्यताओं का त्याग कर दिया है।
4. जिसने अपनी मानसिक ग्रन्थियों का बांध तोड़ दिया है।
5. जिसने अपने बुद्धि धन को भी छोड़ दिया है।
6. जिसने अपने तन रूप परिग्रह को भी छोड़ दिया है।
7. जिसने अपनी ‘मैं’ और ‘मैं’ के एकत्रित किये हुए ‘मेरे’, इन सब पर से अपने अधिकार हटा लिये हैं।
नन्हीं! वे आत्मवान् होते हैं। वे अब किसी से कैसे विषय की आशा करें? किसी विषय को किसके लिये चाहें? वे अब धन, मान या ज्ञान, किसके लिये चाहें और कर्मफल भी किसके लिये चाहें?
फिर इसे दूसरे दृष्टिकोण से देख लो।
नन्हीं! जिनके लिये वे सम्पूर्ण कार्य करते हैं, वे लोग अपनी अपनी कामनाओं की पूर्ति ही चाहते हैं। आत्मवान् जानते हैं कि वे भिखारी केवल अपनी कामना पूर्ण करने की याचना करते हैं। वे नित्य अतृप्त, विशाल उदर वाले भिखारी, आत्मवान् को क्या देंगे?
आत्मवान् नित्य दाता होते हैं, नित्य आशा रहित होते हैं, नित्य तृप्त होते हैं और नित्य निराश्रय होते हैं।
‘केवल उनका शरीर कर्म करता है।’
इसे भी समझ लो!
जो भी उनके सामने आये, उससे प्रेरित होकर, वे कर्म प्रवृत्त हो जाते हैं। जो सामने आये वे उसके कार्य से प्रेरित हो जाते हैं। उनका शरीर उनकी अपनी किसी कामना की पूर्ति के लिये कार्य प्रवृत्त नहीं होता।
सच्ची बात तो यह है कि उनमें अपने लिये कोई कामना ही नहीं होती तो वे स्वयं अपने शरीर को कार्य प्रवृत्त क्या करवायेंगे? उनका शरीर तो कार्य प्रवृत्त होता है, किन्तु आत्मा तो नित्य निर्लिप्त ही होती है। वे शरीर के कर्मों के प्रति नित्य उदासीन होते हैं। इस कारण उन्हें पाप छू नहीं सकते।
वे लोग केवल शरीर से कर्मों को करते हैं। उनका मन उनकी राहों में नहीं आता।
इन सबसे यह न समझ लेना कि :
1. उनकी इन्द्रियाँ अपने सहज गुण छोड़ देती हैं।
2. उनको अच्छे बुरे की प्रतीति नहीं होती।
3. उनकी पसन्द ही ख़त्म हो जाती है।
4. उन्हें खट्टे और मीठे में भेद पता नहीं लगता।
गर ऐसा होता तो वे औरों के कार्य भी अच्छी तरह नहीं कर सकते। याद रहे, वे तो अतीव प्रवीण तथा दक्ष होते हैं, वे मूर्ख नहीं होते। वे तो सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को ग्रहण करने वाले होते हैं तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म परिवर्तन को समझने वाले होते है। फ़र्क इतना ही है कि वे अपनी पसन्द को किसी पर नहीं मढ़ते। वे तो लोगों की चाकरी करते हैं और जो मिले, उसी से प्रसन्न हो जाते हैं।