Chapter 4 Shloka 18

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।।

Bhagwan says:

He who sees inaction in action

and action in inaction,

he is wise among men and he remains

established in Yoga, though performing all actions.

Chapter 4 Shloka 18

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।।

Bhagwan says:

He who sees inaction in action and action in inaction, he is wise among men and he remains established in Yoga, though performing all actions.

To see inaction in action

Little one, who can have such a vision:

1. but a man who possesses wisdom regarding the gunas?

2. but an Atmavaan?

3. but one who has risen above the body idea?

4. but one who has transcended all the qualities and is established in the Truth?

5. but one devoid of attachments and ego?

To see action in inaction

1. If one is attached to abstinence from action, even then one has performed an action.

2. If one has abandoned an action on account of one’s attachment, that attachment becomes an action.

3. If one is perturbed at the imminent loss of an object, that mental upsurgence is an action.

4. Escape from duty also constitutes action.

5. Likes or dislikes give rise to attachment – therefore both are actions.

6. Desire, anger, greed, all constitute action.

7. The desire to cease performing an action or to persist in an action are both actions.

a) Attachment fills the sap of life into actions, such actions are karmas.

b) Even a lifeless deed becomes potent with the energy of attachment.

c) When you claim an action, it becomes ‘your’ action, ‘your’ karma.

d) In fact attachment is karma.

Thus, karmas are internal actions that bind you to the physical being.

1. The man of wisdom who understands this, remains a non-doer despite doing all.

2. He who accepts this truth in life, remains a non-doer and unites with the Supreme.

3. He has transcended all qualities and is a gunatit; he has transcended both action and inaction and is therefore a karmatit.

4. He is supreme among men.

5. The doership thought of such a wise one is dissolved.

6. He has transcended the body and even though he appears manifest, he is without form because he does not identify with his body.

7. One can call such a detached one an Atmavaan or a Yogi.

8. He becomes one with the Supreme because he has renounced all identification with the body and merged in the Atma.

9. He is the Lord Himself and engages himself in all actions.

10. All his deeds are selfless actions performed as yagya.

11. Having renounced his own name and form, all the names and forms of the world become his. Thus he identifies with whoever comes to him.

12. He works to fulfil everyone’s tasks, but looks extremely ordinary.

13. He becomes a servant of those who love.

14. He is the wisest among the wise and seemingly the most ignorant among the ignorant.

15. He appears to be a supreme diplomat, but in reality he does not indulge in diplomacy.

16. Anyone can get his help in any job – he does all jobs, none is too big or too small for him. Fully identified with the other, he engages in all actions, yet, he is not a doer. Working without attachment he abides in inaction.

In short, all gross actions are controlled by the qualities, and thus are not actions but simply ‘a play of qualities’. Then, even if one renounces gross actions and one’s memory still dwells in those deeds, that is one’s action or karma. Thus mental attachment is action.

Therefore, what the world calls action is in fact not karma; and what the world cannot see, i.e. the internal seeds of attachment and thought, that in reality is karma. The man of wisdom knows this and remains ever unaffected by the actions and the qualities of others.

अध्याय ४

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।।

भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. जो कर्म में अकर्म देखता है

२. और अकर्म में कर्म देखता है,

३. वह मनुष्यों में विद्वान् पुरुष है।

तत्व विस्तार :

कर्म में अकर्म देखना

नन्हीं! इस दृष्टि से :

क) कोई गुण विवेकी ही देख सकता है।

ख) आत्मवान् ही देख सकता है।

ग) तनत्व भाव अभाव पूर्ण ही देख सकता है।

घ) कोई गुणातीत ही देख सकता है।

ङ) कोई सत्त्व स्थित ही देख सकता है।

च) कोई मोह मम रहित ही देख सकता है।

छ) कोई अहं रहित ही देख सकता है।

अकर्म में कर्म देखना

1. बाह्य कर्म के त्याग से संग भाव हो, तो वह संग ही कर्म बन जाता है।

2. बाह्य कर्म का त्याग मोह के कारण हो, तो मोह कर्म बन जाता है।

3. विषयों को छूटता देख कर मन में तूफ़ान उठे तो वह उद्विग्नता ही कर्म होती है।

4. कर्तव्य कर्म जब न भायें, तब उनसे पलायन कर्म ही होता है।

5. राग द्वेष संग उत्पन्न करते हैं, इस कारण दोनों कर्म ही हैं।

6. काम और क्रोध कर्म ही हैं।

7. लोभ कर्म ही होता है।

8. कामना का भाव कर्म ही होता है।

9. निवृत्ति की चाहना भी कर्म ही है।

10. प्रवृत्ति की चाहना भी कर्म ही है।

– वहाँ संग कर्म में रस भर देता है।

– जब उसे अपना लेते हो, वह कर्म ‘तेरा’ हो जाता है।

– निष्प्राण कर्म आपके संग के कारण सप्राण हो जाते हैं।

– संग कर्म ही होता है।

सो, कर्म केवल आन्तरिक हैं, जो जीव को स्थूल कर्म से बांध देते हैं।

1. जो बुद्धिमान् यह तत्व जानते हैं, वे सब कर्म करते हुए भी नित्य अकर्ता हैं।

2. जीवन में जो इस सत् को मान लेते हैं कि वह नित्य अकर्ता हैं, वे परम को पाते हैं।

3. वे गुणातीत ही कहलाते हैं।

4. वे कर्म अकर्म से परे हो जाते हैं।

5. वे कर्मातीत कहलाते हैं।

6. पुरुषों में वे परम पुरुष पुरुषोत्तम हो जाते हैं।

7. ऐसे ज्ञानी जन का कर्तृत्व भाव अभाव हो जाता है।

8. उनका तनत्व भाव भी नहीं रहता।

9. वे साकार रूप तो दिख रहे होते हैं, किन्तु वह निराकार हो जाते हैं; क्योंकि वह तन को ही नहीं अपनाते।

10. ऐसे नित्य निरासक्त लोगों को तुम आत्मवान् तथा योग स्थित कह लो।

11. वे परम में परम ही हो जाते हैं, क्योंकि वे तन को त्याग कर आत्मा में लीन हो जाते हैं।

12. वे तो भगवान ही होते हैं, वे समस्त कर्मों को करते हैं।

13. यज्ञ स्वरूप वे आप हुए, उनके सम्पूर्ण कर्म यज्ञ ही हैं।

14. जो आये सामने, वे वही रूप धर लेते हैं और उसके मानो तद्‍रूप हो जाते हैं।

15. नाम रूप अपना क्या गया, सम्पूर्ण नाम रूप उनके हो जाते हैं।

16. सबके काज वे करते हैं, परन्तु अतीव साधारण दीखते हैं।

17. जो प्रेम करे, उसके चाकर वे बन जाते हैं।

18. ऐसे पुरुष मानो ज्ञानी के सम्मुख ज्ञानी बन जाते हैं और अज्ञानी के सम्मुख अज्ञानी बन जाते हैं।

19. वे महा नीतिवान् से दर्शाते हैं, पर वे नीति नहीं करते; उनका जीवन नीति पूर्ण सा दिखता है।

20. जैसा कोई चाहे, उनसे काम करवा ले, वे उसके तद्‍रूप होकर काज करते हैं। अखिल काज वे करते हैं, उनके लिये कोई कर्म न्यून या श्रेष्ठ नहीं होता। वे समस्त कर्म करते हैं, पर कर्ता वहाँ पर कोई नहीं होता।

नन्हीं! संग रहित सब कुछ करता हुआ, वह अकर्म में स्थित ही होता है। संक्षेप में इसे यूं समझ लो, स्थूल कर्म गुण प्रभाव से होते हैं; इस कारण वह कर्म नहीं हैं, केवल गुण खिवलाड़ हैं।

स्थूल कर्म त्याग कर मनो मन विषयों का चिन्तन करना कर्म है। मनो संग ही कर्म है।

साधक! यह जान लो कि जिसे लोग कर्म कहते हैं, वे कर्म नहीं होते। जिसे लोग देख नहीं सकते, जो आन्तर में हो रहे हैं, वे कर्म हैं, जो कर्म बीज बनते हैं।

ज्ञानी जन यह जानते हैं, इस कारण वे लोगों के कर्मों तथा गुणों से नित्य अप्रभावित रहते हैं।

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