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Chapter 4 Shloka 17
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।।१७।।
The Lord says:
One must know the truth
of Karma, Akarma and Vikarma
(action, inaction and negative action);
because the course of action is mysterious.
Chapter 4 Shloka 17
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।।१७।।
The Lord says:
One must know the truth of Karma, Akarma and Vikarma (action, inaction and negative action); because the course of action is mysterious.
Little one, first understand the meaning of karma as given in the Scriptures.
Karma
1. Actions enjoined by the Scriptures.
2. Actions performed in the spirit of yagya.
3. The actions of an Atmavaan and all such actions that take one towards the state of an Atmavaan and union with the Supreme.
4. Actions that free one from sin and moha.
5. Deeds that take one towards selflessness, detachment and freedom from the attitude of doership.
6. That which transforms one’s life into a selfless worship.
7. Actions which render one’s life a yagya, a devotional offering.
8. Those deeds which eradicate the thought of ‘I’ and ‘mine’.
9. That which annihilates the doership attitude while performing deeds, is true action.
Vikarma – Negative actions
1. Selfish actions, contrary to yagya.
2. Actions that augment the body-related intellect.
3. Actions that are contrary to a divine attitude and conducive to a demonic attitude.
4. Actions motivated by greed and desire fulfilment; actions that pander to one’s likes.
5. Actions that inflate one’s ego and increase one’s attachments.
6. Actions that promote pain and mental disturbance.
7 Actions that degrade one, rather than improve one as a human being.
8. Actions that augment ignorance and the sentiment ‘I am the partaker and the doer’.
9. Actions which sway one away from the path of duty and dharma and blind one to the difference between dharma and adharma.
Akarma – Inaction
1. One who abdicates both dharma and adharma and foolishly sits back, dwells in akarma.
2. Abandoning duty without a care is akarma.
3. Abandoning of both the spiritual and the materialistic paths – shreya and preya, is akarma.
4. Those with a tamsic attitude abide in akarma.
Another view: Bhagwan has earlier said that a person cannot evade action even for a moment (Chp.5, shloka 3). In this respect, akarma will have another connotation which the Lord clarifies later. Karmas are virtuous actions and vikarmas are vile, debased actions. The Lord has also said earlier that all actions are controlled by gunas which interact with other gunas. They are the motivators of action. Seen in this perspective, it is clear that the classification of actions has some meaning only so long as the sense of doership prevails.
1. Karmas increase one’s satoguna – the quality of sattva; they destroy ignorance and establish the individual in sattva.
2. Vikarmas increase one’s rajoguna – the quality of rajas; they are based on greed, covetousness and desire.
3. Akarmas increase one’s tamoguna – the quality of tamas. They are based on ignorance and promote laziness and sloth.
And yet:
a) All gross actions are dependent on our qualities and are automatic.
b) Birth and death, name and form – all these are endowed by Nature (Prakriti) and the individual has no hand in them.
c) Qualities attract, repel, promote or destroy other qualities. In life there is constant interaction of the qualities.
1. Knowing this, all thought of doership will cease if one does not claim any deed to be one’s own.
2. One will transcend actions even whilst performing all actions.
3. Nothing is gained by changing the arena of action – if attachment with action is annihilated, one becomes a non-doer.
4. If attachment to actions disappears, then one will abide in akarma (inaction) even whilst performing action. One’s life will then become a yagya.
Actions devoid of attachment
If attachment does not remain:
a) no action remains ‘one’s own’;
b) then even the body idea vanishes;
c) one has no selfish motive;
d) doership is eradicated;
e) when doership thus ceases, the distinction between karma, akarma and vikarma does not exist. Such a one is ever a non-doer.
Now understand this from yet another point of view:
Since all actions are instigated by the interaction of qualities, then:
1. It is doership that creates the seed for the birth-death cycle.
2. Attachment sprouts the fruit in the otherwise barren action.
3. Therefore it is essential to eliminate the idea of doership. Merely renouncing action will not lead to the Lord.
“I want to do this, I want to be that” – abandon all such thoughts and take refuge in the Lord and His Word and act accordingly. Whatever you do, leave all to Him. Knowing that actions are a result of qualities interacting with other qualities, blame nobody. If you become devoid of criticism, it will not be difficult to transcend your body.
अध्याय ४
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।।१७।।
भगवान कहते हैं :
शब्दार्थ :
१. कर्म को जानना चाहिये,
२. अकर्म को भी जानना चाहिये
३. और विकर्म को भी जानना चाहिये,
४. क्योंकि कर्म गति बहुत गहन है।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! प्रथम शास्त्र के दृष्टिकोण से कर्म को समझ ले कि कर्म क्या है :
कर्म :
1. शास्त्र कथित कार्य कर्म है।
2. यज्ञ पूर्ण काज कर्म है।
3. आत्मवान् का कार्य कर्म है।
4. जो जीव को आत्मवान् बना दे, वही कर्म करने योग्य है।
5. परम सों जो मिला दे, वही कर्म करने योग्य है।
6. पाप से जो विमुक्त करा दे, वही कर्म करने योग्य है।
7. मोह से जो विमुक्त करा दे, वही वास्तविक कर्म है।
8. निष्काम भाव में जो टिका दे, वही वास्तविक कर्म है।
9. जो पूर्ण जीवन को निष्काम पूजा बना दे, वही वास्तविक कर्म है।
10. कर्तृत्व भाव के अभाव की राह पर किये हुए कर्म ही कर्म हैं।
11. जो जीवन को यज्ञमय बना दे, वही कर्म है।
12. जो निरासक्त बना दे, वही कर्म है।
13. जो ‘मैं, मम’ भाव का नितान्त अभाव करा दे, वही कर्म है।
14. जो कर्मों में से कर्तापन का भाव मिटा दे, वही कर्म है।
विकर्म :
1. यज्ञ से विपरीत कर्म,
2. स्वार्थ पूर्ण कर्म,
3. देहात्म बुद्धि वर्धक कर्म,
4. असुरत्व भाव वर्धक कर्म,
5. दैवी सम्पदा के विपरीत कर्म,
6. लोभ कामना पूर्ण कर्म,
7. कर्तव्य विरुद्ध कर्म,
8. केवल रुचि पूर्ति अर्थ कर्म,
9. अहं, मम, मोह वर्धक कर्म,
10. क्षोभ और अशान्ति वर्धक कर्म,
11. आपको श्रेष्ठ न बना कर, निकृष्ट बनाने वाले कर्म,
12. भोक्तृत्व भाव वर्धक कर्म,
13. अज्ञान वर्धक कर्म,
14. धर्म अधर्म विवेक जो मिटा देते हैं ऐसे कर्म,
15. कर्तव्य विमुख जो करवा दें, वह ‘विकर्म’ कहलाते हैं।
अकर्म :
1. कर्म हीनता को अकर्म कहते हैं।
2. कर्म अभाव को अकर्म कहते हैं।
3. धर्म अधर्म, दोनों को त्याग कर मूर्खों की तरह बैठ जाना व्यर्थ है।
4. कर्तव्य कर्म का त्याग अकर्म है।
5. श्रेय प्रेय, दोनों पथों का त्याग कर देना अकर्म है।
6. तम पूर्ण लोगों का आचरण अकर्म ही होता है।
साधिका! अब दूसरा दृष्टिकोण समझ ले! भगवान ने स्वयं कहा है कि ‘जीव एक क्षण भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता’ (अध्याय 3, श्लोक 5)। तो अकर्म का अर्थ कुछ और होगा। इसे भगवान स्वयं आगे स्पष्ट करेंगे।
श्रेष्ठ कर्म को ‘कर्म’ कह लो; निकृष्ट कर्म को ‘विकर्म’ कह लो। भगवान ने कहा है कि ‘गुण गुणों में वर्त रहे हैं।’ तो इन दोनों प्रकार के कर्मों पर ध्यान देना निरर्थक है। यदि कर्तृत्व भाव है, तो यह कर्म विभाग अर्थ रखता है। तब यूँ समझ लो कि :
1. ‘कर्म’ सतोगुण वर्धक हैं। ये अज्ञान विनाशक हैं तथा जीव को सत्त्व में स्थित करते हैं।
2. ‘विकर्म’ रजोगुण वर्धक हैं तथा लोभ, तृष्णा और काम पर आधारित हैं।
3. ‘अकर्म’ तमोगुण वर्धक हैं और अज्ञान पर आधारित हैं। यह आलस्य तथा निद्रा युक्त करने वाले हैं।
आप इसे यदि दूसरे दृष्टिकोण से देखो तो समझोगे कि :
1. जितने भी स्थूल कर्म हो रहे हैं, वह सब गुणों पर आधारित हैं और सब स्वत: हो रहे हैं।
2. जन्म मरण, नाम रूप, यह सब जीवों को प्रकृति से मिले हैं; इनमें उनका कोई हाथ नहीं है।
3. जीवन में गुणों ने गुणों को आकर्षित किया है।
4. गुणों ने गुणों को प्रतिकर्षित किया है।
5. गुण ही गुणों को उभारते हैं।
6. गुण ही गुणों को मारते हैं।
7. गुण ही गुणों को बढ़ाते हैं।
यह सब गुण खिलवाड़ ही है।
यदि यह सब सच है तो :
1. जो कर्म हो रहे हैं, उन्हें न अपनाने से कर्तृत्व भाव अभाव हो जायेगा।
2. आप कर्म करते हुए भी कर्म से परे हो जायेंगे।
3. कर्म स्थान परिवर्तन से तो कर्तृत्व भाव अभाव नहीं होगा।
4. कर्म संग ही नहीं रहा तो कर्म करते हुए भी आप अकर्ता हो जायेंगे।
5. कर्म संग ही नहीं रहा तो कर्म करते हुए भी अकर्म ही होता है।
6. कर्म संग ही नहीं रहा तो जीवन यज्ञमय हो जायेगा। तब कर्ता कोई नहीं रहता।
संग रहित कर्म :
जब संग ही नहीं रहे :
क) तब अपना कर्म ही नहीं रहता।
ख) तब अपना तनत्व भाव ही नहीं रहता।
ग) तब अपना प्रयोजन ही नहीं रहता।
घ) तब अपना कर्तापन ही नहीं रहता।
ङ) उस पल कर्म, अकर्म या विकर्म का भेद भी नहीं रहता। ऐसी स्थिति वाला तो नित्य अकर्ता ही होता है।
अब एक और दृष्टिकोण से समझ!
जब सम्पूर्ण कर्म गुण खिलवाड़ हैं तब:
1. कर्तव्य भाव ही कर्म बीज बनता होगा।
2. कर्तापन ही कर्म बीज बनता होगा।
3. संग ही जड़ कर्म में कर्म फल रूप बनता होगा।
4. तो कर्तृत्व भाव अभाव चाहिये, कर्म त्याग से भगवान नहीं मिलेंगे।
‘मुझे यह बनना है या मुझे यह करना है’, यह भाव छोड़ कर साधारण जीवन में भागवद् परायण होकर कर्म करो। जो भी करो, उसे भगवान पर छोड़ दो। गुण गुणन् में वर्तते हुए जान कर किसी को दोष न दो। दोष दृष्टि अभाव हो जाने से अपने तन से उठना भी सहज हो जायेगा।