Chapter 4 Shloka 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।९।।

O Arjuna! He who knows thus

My divine birth and actions,

is not reborn after leaving the body;

he attains Me.

Chapter 4 Shloka 9

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।९।।

O Arjuna! He who knows thus My divine birth and actions, is not reborn after leaving the body; he attains Me.

The Lord says:

1. A person who knows My divine birth;

2. A person who understands the mystery of the One established in the Truth thus embodying Himself;

3. He who understands the purpose of My birth and My deeds;

4. Who knows that the life of an Atmavaan is the living example of Truth;

5. Who perceives the secret of incomparable perfection in an utterly simple life;

6. He who understands My complete identification even with the ignorant and who knows that I do not confuse them with mere rhetoric, instead, living like them at their level, I show them the path of Truth;

7. He who knows that I am not a ‘doer’ despite My performing all actions;

8. He who knows that I am not the ‘partaker’ despite partaking of all objects;

9. He who knows that I am devoid of form despite My earthly manifestation;

Such a one who knows My Essence thus, is never reborn after leaving the body. He renounces the body and thus attaining the state of an Atmavaan, he attains Me.

The meaning of ‘renouncing the body’

1. The Lord is not alluding to death as such.

2. He is talking about the eradication of identification with the body.

3. When one renounces the intellect that furnishes all the body’s desires, it is tantamount to renunciation of identification with the body. Then it will not even matter to such a one whether the body lives or dies.

4. When the ‘I’ identifies with the Atma, you become an Atmavaan, you are no longer the body.

5. Then you will no longer consider the body’s birth or death to be your birth or death.

6. Others may refer to the body as yours and it will function naturally in accordance with the circumstances, but there will be no consciousness of its individuality.

Little one! The Atmavaan abides in an ordinary body which is subject to nature’s laws just as all other bodies are.

a) His body suffers pain and affliction.

b) It is bound by the same norms and influenced by the same objects of the material world.

c) The Atmavaan, too, has to contend with the same problems as do others.

d) His body is ever involved in mundane tasks.

Yet:

1. He is not attached with any of the circumstances with which he is beset.

2. He seeks nothing from any situation or person for personal benefit.

3. He is devoid of selfishness; he is completely indifferent towards his own self.

4. One could say that he is ‘asleep’ towards his own body. He is awake only towards the needs of the world.

5. Such a one is neither born, nor dies. He is united with the Atma. In fact, Lord Krishna quite explicitly states that such a one is Bhagwan Himself.

अध्याय ४

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।

त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।९।।

फिर भगवान कहने लगे :

हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. मेरे दिव्य जन्म और कर्म को जो इस प्रकार जानता है,

२. वह शरीर को त्याग कर, फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं जो :

1. मेरे इस दिव्य जन्म को जानता है,

2. आत्मा में स्थित स्वरूप के तन धारण करने का राज़ जानता है,

3. मेरे इस दिव्य जन्म और कर्म का प्रयोजन जानता है,

4. आत्मवान् का जीवन केवल सत् का प्रमाण है, यह जानता है,

5. साधारण जीवन में अतीव विलक्षणता का राज़ जानता है,

6. सम्पूर्ण अज्ञानी पुरुषों से भी मेरी एकरूपता को जानता है,

7. कैसे मैं उन्हें चलायमान नहीं करता, इसका राज़ जानता है,

8. कैसे उनके स्तर पर जाकर मैं उनके समान विचरता हूँ, यह जानता है,

9. कैसे उनके स्तर पर जाकर उनके समान कर्म करता हूँ, यह जानता है,

10. पूर्ण कर्म करता हुआ भी मैं कैसे अकर्ता हूँ, इसका राज़ जानता है,

11. पूर्ण भोगों को भोगता हुआ भी मैं कैसे अभोक्ता हूँ, इसका राज़ जानता है,

12. रूपवान् होते हुए भी मैं कैसे निराकार हूँ, इसका राज़ जानता है,

जो मेरे स्वरूप को इस प्रकार तत्व से जानता है, वह तन त्याग कर फिर जन्म को नहीं पाता। वह जीते जी तनत्व भाव त्याग कर, आत्मवान् बन कर मुझे पाता है।

‘शरीर त्याग’ का अर्थ :

क) भगवान यह मृत्यु के दृष्टिकोण से नहीं कह रहे हैं।

ख) वह तो तनत्व भाव त्याग की बात कर रहे हैं।

ग) यदि जीते जी आप देहात्म बुद्धि का त्याग कर दें तो आपने तो तन छोड़ ही दिया, तब आपके लिये तन जिये या मरे, एक ही बात है।

घ) आपकी ‘मैं’ तो आत्मा के तद्रूप हो गई, तब आप आत्मवान् हैं, तन नहीं।

ङ) तब आप तन के जन्म तथा मरण को अपना जन्म मरण नहीं मानेंगे।

च) तब, देखने में तो लोग उस तन को आपका ही कहेंगे और आपका तन भी सहज परिस्थिति के अनुकूल काज करता रहेगा; किन्तु जीवत्व भाव वहाँ नहीं होगा।

नन्हीं जान्!

1. देखने में आत्मवान् साधारण तन ही है।

2. देखने में उनका तन प्रकृति के अधीन ही होता है।

3. देखने में रोग, दर्द तथा कष्ट भी उनके तन को होते हैं।

4. उनका तन भी सार्वजनिक नियमों से बन्धा होता है।

5. उनका तन भी सार्वजनिक भौतिक विषयों से प्रभावित होता है।

6. उनका तन साधारण कार्यों में नित्य प्रवृत्त भी होता है।

7. वे साधारण व्यक्तियों के समान, साधारण समस्याओं को भी सुलझाते रहते हैं।

किन्तु :

क) उन सब परिस्थिति में वह स्वयं आसक्त नहीं होते।

ख) उन सब परिस्थितियों से वास्तव में उन्हें कोई निजी प्रयोजन नहीं होता।

ग) स्वार्थ का वहाँ नामोनिशान नहीं होता।

घ) वे तो नित्य उदासीन होते हैं अपने तन के प्रति।

ङ) वे तो मानो अपने तन के प्रति प्रगाढ़ निद्रा में सो जाते हैं।

च) वे तो संसार के लिये मानो नित्य जागते रहते हैं।

छ) ऐसे का न कभी जन्म होता है, न मरण!

नन्हीं! जो आत्मवान् हो जाते हैं, वे आत्मा को ही पाते हैं। यह सब भी कहने की ही बातें हैं। भगवान कहते हैं, ‘वह तो स्वयं भगवान ही हैं।’

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