Chapter 4 Shloka 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।।

Talking of His manifestation on earth, the Lord says:

Whenever dharma declines and adharma prevails,

I manifest Myself.

Chapter 4 Shloka 7

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।।

Talking of His manifestation on earth, the Lord says:

Whenever dharma declines and adharma prevails, I manifest Myself.

The Lord says, “I take birth:

1. When Truth disappears from peoples’ lives.

2. When no one can understand duty.

3. When the spirit of yagya no longer dwells in peoples’ hearts.

4. When compassion, dharma and traditional values are forgotten.

5. When peoples’ conduct no longer conforms to the Scriptures.

6. When the religion of Truth becomes meaningless to man and selfishness impels even the knowledgeable to barter their knowledge for material gain.

7. When even the sadhu or spiritual aspirant is entangled in the roop – the manifest form and forgets the originating source – the swaroop.

8. When Truth is sacrificed at the altar of moha.

9. When the sadhu is unable to understand the essence of yoga and is no longer able to explain the true meaning of the Scriptures.

10. When people become the embodiment of moha and anger and are blinded by greed.

11. When the sadhus are no longer able to discern the true meaning of karma or action and are oblivious to their duty.

12. When the sadhu, afflicted by illusion, performs deeds that augment attachment to the body. Then, such sadhus begin to sin instead of living life in the spirit of yagya.”

Little one, these are signs of the decline of dharma.

Understand this again. Dharma undergoes destruction when knowledge is used only for the mind’s entertainment. The chasm between scriptural injunction and the practices one adopts in one’s daily life grows insidiously and the so-called aspirant of spiritual living renounces all duties.

a) Then it becomes difficult for the ordinary man to find examples of spiritual living; he thus begins to doubt the possibility of divinity in daily life.

b) When two separate spheres are established – one of the worldly materialist and the other of the sadhus, then sin will increase in the world.

c) When sadhus and renunciates disregard adherence to duty, then they too become sinners.

d) When sadhus and renunciates do not lead selfless lives, their sin increases and dharma is destroyed.

e) When sadhus and renunciates, clinging to their badge of righteousness and renunciation, do not perform even ordinary actions when living amongst ordinary people, the decline of dharma is inevitable.

f) When such renunciates do not give of their capacities and talents for the welfare of others and suppress their qualities, they are said to be thieves, robbing the world of divine attributes. They are also robbing the Lord, for instead of letting the divine qualities flow out to the world in an attitude of non-attachment and selflessness, they deny the world what they have stolen from the Lord.

g) When such sanyasis, who were meant to learn detachment from their own selves, remain untouched by the joys and sorrows of others, then dharma declines in the world and sin increases.

h) When these very sanyasis shut their eyes to atrocities committed upon the ordinary man and do not attempt to save him under the garb of impartiality, they become partners in sin and dharma deteriorates.

Little one, it is not so much the ordinary man who is responsible for this decline in dharma as those who take pride in their sagacity and attitude of renunciation, yet do not understand its true meaning.

The Lord has said ‘I embody Myself when dharma declines.’ Then does He come to create a new dharma each time? This is not so. Bhagwan comes to correct the shortcomings in the prevailing practice of religion by the upholders of dharma.

If one compares the incarnations of Divinity who took birth in this world, they will all be similar in essence. The only differences that will meet the eye will mirror the different circumstances, society and conceptions prevalent in their life time. Their destinies will be different, their words will differ in accordance with the problems that were rampant in that era, etc. However, their state, attitude and points of view will be identical.

अध्याय ४

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।७।।

अब भगवान बताते हैं कि उनका जन्म कब होता है! वह कहते हैं, हे अर्जुन!

शब्दार्थ :

१. निस्सन्देह जब धर्म की ग्लानि होती है,

२. और अधर्म की वृद्धि होती है,

३. तब तब मैं प्रकट होता हूँ।

तत्व विस्तार :

भगवान कहते हैं, ‘मैं जन्म लेता हूँ’ :

1. जब सत्य का अभाव हो जाता है।

2. जब किसी को भी ‘कर्तव्य क्या है’, यह समझ नहीं आता।

3. लोगों में यज्ञमय दृष्टि नहीं रहती।

4. जब दया धर्म मिट जाते हैं।

5. जब धर्म मर्यादा भंजित होती है।

6. जब संसार में शास्त्र विहित आचरण नहीं रहता लोगों का!

7. जब सत् धर्म व्यर्थ हो जाते हैं और स्वार्थ के लिये ज्ञानी लोग ज्ञान को बेचने लग जाते हैं।

8. जब सत् का स्वरूप सब भूलने लगते हैं।

9. जब साधु भी रूप में टिक जाते हैं और सत्य स्वरूप भूल जाते हैं।

10. जब मोह के कारण सत्य बिकने लग जाता है।

11. जब साधु भी योग नहीं समझ सकते।

12. जब साधु और शास्त्र ज्ञानी भी शास्त्रों का अर्थ बता नहीं पाते।

13. जब वह मोह और क्रोध रूप हो जाते हैं और लोभ से आवृत हो जाते हैं।

14. जब साधु कर्म को नहीं समझ सकते और कर्तव्य को छोड़ देते हैं।

15. जब साधु ‘योग है क्या?’ यह नहीं समझते और उसे मिथ्या अर्थ दे देते हैं।

16. जब साधु भ्रमित होकर तनत्व भाव त्याग के लिये तनो बन्धन वर्धक कर्म करने लगते हैं।

17. जब यज्ञमय जीवन की जगह, वे पाप करने लग जाते हैं।

नन्हीं! यही धर्म की हानि है। इसे फिर से समझ!

धर्म की हानि तब होती है, जब ज्ञान केवल शाब्दिक मनोविनोद रह जाता है, शास्त्रीय सिद्धान्त तथा सहज जीवन को हम पृथक् पृथक् कर देते हैं और जब साधुता के अनुष्ठान करने की चाहना वाले लोग अपने सहज कर्तव्य भी छोड़ देते हैं :

क) तब साधारण लोगों को सहज जीवन में साधुता का प्रमाण मिलना कठिन हो जाता है।

ख) साधारण लोग तब यह समझने लग जाते हैं कि साधारण जीवन में तत्व का अनुष्ठान हो ही नहीं सकता।

ग) संसारी और साधु, इनके दो अलग अलग लोक बन जाते हैं, तब पाप और बढ़ने लगते हैं।

घ) जब साधु और संन्यासी कर्तव्य परायणता भूल जाते हैं, तब तो वे स्वयं ही पापी हो जाते हैं।

ङ) जब साधु और संन्यासी निष्काम जीवन व्यतीत नहीं करते, तब पाप बढ़ जाते हैं और धर्म का नाश हो जाता है।

च) जब साधु और संन्यासी, साधुता और संन्यास भाव को बिन त्यागे, साधारण लोगों के साथ रहते हुए भी साधारण कार्य नहीं करते, तब धर्म नष्ट होने लगता है।

छ) जब साधु और संन्यासी अपने सहज गुणों को तन के सहित संसार को नहीं दे देते और अपने गुणों को दबा लेते हैं, तब तो मानो वह संसार से भागवत् गुणों की चोरी करते हैं। वास्तव में, यह भगवान की भी चोरी करते हैं; क्योंकि जो लोग नित्य निष्काम तथा निरासक्त हुए भागवद् गुण बहा सकते हैं, वही भगवान के गुण चुराकर, संसार को देने से मानो इन्कार कर देते हैं।

ज) जब साधु और संन्यासी गण, जिन्हें अपने प्रति उदासीन होना था, वह दूसरों के दु:ख सुख के प्रति उदासीन हो जाते हैं, तब संसार में धर्म मिटने लगता है और पाप बढ़ने लगता है।

झ) जब साधु और संन्यासी गण, साधारण जीवन में, साधारण लोगों को अत्याचार से बचाने की जगह, स्वयं आँख मूंद कर, निरपेक्षता का ढोंग रचाते है, तो वास्तव में वे स्वयं पाप के भागी बन जाते हैं। तब धर्म का नाश होने लगता है।

नन्हीं! धर्म का पतन साधारण जीवों के कारण इतना नहीं होता। यह तो साधुता गुमानी तथा संन्यास का अर्थ न जानने वाले संन्यासियों के कारण होता है।

भगवान कहते हैं, “जब जब धर्म का नाश हो जाता है, तब तब ही मैं रूप धरता हूँ।”

नन्हीं! ध्यान से देख! जब जब भगवान जन्म लेते हैं, ऐसा लगता है कि वह एक नया धर्म कायम कर देते हैं। ऐसी कोई बात नहीं होती। वास्तव में उस काल में धर्म परायण लोगों में जो त्रुटियाँ रह जाती हैं, भगवान उन्हीं का समाधान करने के लिये जन्म लेते हैं।

जितने भी अवतारी पुरुष हैं, इनकी ओर यदि ध्यान से देखें, तो तुम्हें यह सब स्वरूप के दृष्टिकोण से समान दिखेंगे, उनमें भेद केवल उनके जन्म के समय की सभ्यता तथा मान्यता के कारण होता है। उनके जीवन या रेखाओं में भेद होता है, उनके वाक् उस समय की समस्याओं के कारण भिन्न होते हैं परन्तु उन सबकी निजी स्थिति सम होती है। उन सबका दृष्टिकोण सम होता है।

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