Chapter 4 Shloka 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।

स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप।।२।।

Then the Lord said:

Thus this Yoga, received from time immemorial,

was known by the Raj Rishis; but O Arjuna!

This Yoga has long since

disappeared from the world.

Chapter 4 Shloka 2

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।

स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप।।२।।

Then the Lord said:

Thus this Yoga, received from time immemorial, was known by the Raj Rishis; but O Arjuna! This Yoga has long since disappeared from the world.

Little one, it is said that this Yoga was first known by the Raj Rishis or royal sages.

1. In those times, the kings observed purity of spirit and deed.

2. They performed all possible actions for the welfare of their subjects.

3. They lived a life of yagya.

4. Being Kshatriyas, they constantly kept in readiness for death.

5. They sacrificed even their lives for the other’s welfare.

6. Their minds were rooted in Adhyatam, and they were devoid of attachment to the body.

7. They rested their faith in Brahm and conducted their lives with His support.

8. Divine qualities emanated from them.

9. They adhered to deeds of a selfless nature as prescribed by the Scriptures. Therefore they were known as Raj Rishis.

The Lord says, these were the Raj Rishis who possessed the knowledge of Yoga.

a) They attained perfection through the practice of Yoga.

b) Through yagya they gave their all.

c) They annihilated all traces of moha, attachment and the concept of ‘I’, keeping before themselves the exalted example of Brahm’s Supreme yagya.

d) They knew the body to be transient and controlled by the threefold Prakriti.

e) They recognised that all forms, names and actions too, were controlled by the three gunas.

f) Thus, they transcended the idea ‘I am the body’ and knew themselves to be the Atma.

g) They lived ordinary lives, conducting themselves in a detached manner for the welfare of the world.

Then why did this knowledge disappear?

1. People became individualistic.

2. They began to consider themselves to be the body.

3. They sought the protection and establishment of their own body.

4. They began to fear death.

5. They only sought pleasures to indulge the mind.

6. They engrossed themselves in the accumulation of material objects.

When a person disregards the Atma and becomes engrossed in the body, his downfall begins.

When the mind becomes accustomed to partaking of the pleasures of the objects, it becomes attached to those objects. It is the job of the intellect to give happiness to all and to teach the method for obtaining the desired joys. When the mind began to crave external objects, the intellect began to direct the senses in the pursuit of these objects. Thus the ‘I’ usurped the kingdom of the Atma, and the intellect, mind and senses became oblivious to their true essence. Thus was the precious knowledge of Yoga lost.

अध्याय ४

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।

स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप।।२।।

फिर भगवान ने कहा :

शब्दार्थ :

१. इस प्रकार से परम्परा से प्राप्त हुआ यह योग

२. राज ऋषियों ने जाना;

३. परन्तु हे अर्जुन! यह योग बहुत काल से इस संसार से लुप्त हो गया है।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! ध्यान से समझ! यह योग प्रथम राज ऋषियों ने जाना।

1. राजा गण पहले पावन कर्म करते थे।

2. लोक कल्याण करने वाले कर्म करते थे।

3. सर्वस्व प्रजा पर न्योछावर करते थे।

4. क्षत्रिय होने के नाते कफ़न पहरे रहते थे।

5. दूसरों के कल्याण के लिये अपने प्राण भी न्योछावर कर देते थे।

6. यज्ञमय जीवन होता था इन राजाओं का।

7. वे अध्यात्म में चित्त धरते थे और उन्हें अपने तन से संग नहीं होता था।

8. वे ब्रह्म परायण होते थे और ब्रह्म में निष्ठा रखते थे।

9. उनका जीवन दैवी गुण पूर्ण होता था।

10. ब्रह्म विद्या द्वारा निश्चित निष्काम कर्म उन राजाओं का सहज स्वभाव था, इसलिये वे राजर्षि कहलाते थे।

भगवान ने कहा, ‘यह योग इन राज ऋषियों ने जाना’, अर्थात् :

1. योग साधन करके इन्होंने सिद्धि पाई।

2. इन्होंने अपना जीवन यज्ञमय बनाया होगा।

3. इन्होंने अपना सर्वस्व अर्पित करते यज्ञ किया होगा।

4. इन राज ऋषियों ने मोह और संग को मिटाया होगा।

5. परम यज्ञ की उपमा दे कर इन्होंने अपना ‘मैं’ भाव मिटाया होगा, तब ही तो यह उच्च नाम पाया होगा।

6. वे तन को मृत्यु धर्मा और त्रिगुणात्मिका शक्ति रचित जान गये होंगे।

7. स्थूल के नाम, रूप तथा कर्मों को गुण खिलवाड़ मान गये होंगे।

8. तनत्व भाव से परे अपने आपको आत्मा मानते होंगे।

9. वे नित्य निरासक्त हुए संसार के हित के लिये साधारण जीवन व्यतीत करते होंगे।

ज्ञान का लोप क्यों हुआ?

भगवान कहते हैं, इस ज्ञान का बहुत काल से संसार से लोप हो गया है, क्योंकि नन्हीं!

क) लोग व्यक्तिगत होने लग गये।

ख) अपने आपको तन मानने लग गये।

ग) अपने तन की स्थापना चाहने लग गये।

घ) अपने तन का संरक्षण चाहने लग गये।

ङ) उनमें मृत्यु का भय उठने लगा।

च) वे केवल अपने मन को रिझाने में लग गये।

छ) वे विषय संग्रह करने लग गये।

जब जीव आत्मा को भूल जाता है और अपने आपको तन मानने लगता है तब पतन आरम्भ हो जाता है।

जब मन विषय से रस लेकर रसास्वादन लेने लगता है तो विषयों से संग हो जाता है। बुद्धि का तो काम ही था सबको सुख देना और सबको वांछित सुखों को पाने की विधि बताना। जब ‘मैं’ ने तन को व्यक्तिगत कर लिया और मन विषयों की चाहना करने लगा, तब बुद्धि भी तनो इन्द्रियों तथा मन को वांछित विषय की उपलब्धि के ढंग सुझाने लगी। आत्मा की जगह पर ‘मैं’ ने अपना राज्य स्थापित कर लिया; तब ही यह बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ अपना स्वरूप छोड़ बैठीं।

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