Chapter 3 Shloka 43

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।४३।।

O strong armed Arjuna! Thus knowing

‘That’ which is higher than the intellect,

and controlling the mind through the intellect,

kill this indomitable enemy in the form of desire.

Chapter 3 Shloka 43

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।४३।।

Now the Lord is saying:

O strong armed Arjuna! Thus knowing That which is higher than the intellect, and controlling the mind through the intellect, kill this indomitable enemy in the form of desire.

The Lord clarifies that the Atma is higher and more powerful than the intellect:

1. if the Atma becomes the intellect’s focus;

2. if the Atma becomes the object of its love;

3. if one’s only aim is the attainment of the state of an Atmavaan;

4. if the intellect delights in its essence, and delights in becoming its manifest reality;

5. if the intellect realises that it is in fact the Atma and practises the renunciation of the body idea.

Then the intellect will succeed in winning over the mind. Then the mind, too, will support the intellect and develop a selfless attitude. Then shall this unit of body, mind and intellect come truly within your control. It is then that the enemy – desire – will be annihilated.

Bhagwan calls Arjuna ‘the mighty armed one’. In other words, He is saying ‘O Arjuna, you are a strong warrior. You are skilled and clever. You can easily overcome this enemy – ‘desire’ with the strategy drawn out by Me.’

Little one! It is only the Atmavaan who is fully satiated. Only he is devoid of desire. Selfless actions provide the path towards attainment of that state. Perform acts in the spirit of yagya – such a life is the practical manifestation of the Atmavaan.

All the Scriptures tell of the path of mergence with the Atma, one’s higher Self. When the life of the individual is molded in accordance with the knowledge of the Atma, he can be said to be established in his true identity. He is an ‘Anubhavi’, or one who has experienced the Self in his own life.

That Anubhavi is free from desire. Desire can never even touch that eternally satiated One.

अध्याय ३

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।४३।।

नन्हीं! अब भगवान कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. इस प्रकार बुद्धि से परम को जान कर

२. और बुद्धि के द्वारा जीवात्मा को वश में करके,

३. हे महाबाहो! इस दुर्जेय काम रूप शत्रु का नाश कर।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! अब भगवान कहते हैं कि बुद्धि से भी श्रेष्ठ तथा बलवान् आत्मा है।

क) यदि बुद्धि अपने से श्रेष्ठ आत्मा की ओर लग जाये,

ख) यदि बुद्धि को आत्मा से प्रेम हो जाये,

ग) यदि बुद्धि आत्मवान् बनने को ही अपना लक्ष्य बना ले,

घ) यदि बुद्धि अपने ही स्वरूप को पसन्द कर ले और अपनी ही पसन्द स्वयं बनना चाहे,

ङ) यदि बुद्धि अपने आपको आत्मा मान ले और तनत्व भाव के त्याग का अभ्यास कर ले,

तब यह बुद्धि मन को अपनी ओर आकर्षित कर लेगी और तब यह मन भी निष्काम कर्म करने लग जायेगा। तब बुद्धि को इस मन का सहयोग मिल जायेगा। तब यह तन, मन, बुद्धि पुंज, आपके वश में हो जायेंगे। तब यह दुर्जेय, काम रूप शत्रु भी स्वत: ख़त्म हो जायेगा।

भगवान ने अर्जुन को ‘महाबाहो’ कहा। यानि कहा, ‘हे अर्जुन! तू तो महा पराक्रमी है, तू तो महा बलवान है। तू तो बड़ी भुजाओं वाला है। हे बलवान् शूरवीर! तू निपुण तथा चतुर भी है। इस नीति से तू काम रूप शत्रु को भी मार सकता है।’

नन्हीं! केवल आत्मवान् ही आप्तकाम होते हैं। केवल आत्मवान् ही कामना रहित होते हैं। निष्काम कर्म ही आत्मवान् बनने की विधि है। यज्ञमय जीवन ही आत्मवान् का विज्ञानमय रूप है।

सम्पूर्ण शास्त्र आत्मवान् के स्वरूप में स्थिति की विधि कहते हैं। जब आत्मा के ज्ञान के पश्चात् जीव का जीवन तदनुकूल हो जाता है तब वह स्वरूप में स्थिति पाता है। उसे अपने जीवन में स्वरूप का अनुभव होता है, इस कारण वह अनुभवी कहलाता है।

वह अनुभवी कामना से परे होता है। उस नित्य तृप्त को कामना छू भी नहीं सकती।

 

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम

तृतीयोऽध्याय:।।३।।

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