Chapter 3 Shloka 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:।।४२।।

The senses are powerful,

but superior to the senses is the mind

and superior to the mind is the intellect;

far superior to the intellect is the Self, the Atma.

Chapter 3 Shloka 42

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:।।४२।।

The senses are powerful, but superior to the senses is the mind and superior to the mind is the intellect; far superior to the intellect is the Self, the Atma.

The Lord says, that even if the senses are powerful and in permanent contact with their objects, the mind is much stronger.

1. If the mind does not support them, the senses become powerless and stop dwelling in these objects.

2. If the mind does not support them, the senses do not gravitate towards objects.

3. If the mind develops interest in something else, the senses flow towards that object of interest.

4. When the mind no longer supports the senses, their interpretations become meaningless.

5. The mind is the enjoyer of the sense objects. If the mind has no interest in partaking of those objects, then the latter lose their charm, inspite of continuing contact.

6. If the mind is free of desire, it will no longer instigate the senses to pursue the objects of sense.

7. Then it will make no difference whether there is contact with the objects or not.

Yet the Lord has also warned us that if the mind continues to dwell in sense objects mentally, then it is fraudulent and deceitful. The mind should:

a)  withdraw from the objects of sense;

b)  cease its concentration on those objects;

c)  renounce its taste for the sensations caused by objects.

The Lord then says that the intellect is stronger than the mind.

1. The intellect can explain the knowledge to the mind.

2. It can show the mind the difference between right and wrong.

3. It can attract the mind towards itself.

4. It can make noble attributes and ideals attractive for the mind.

5. It can cajole the mind.

6. It can impart the knowledge of Truth and falsehood to the mind.

7. It can gain mastery over the mind.

8. It can guide it through discussion and argument.

Beyond the intellect is the Atma. If the intellect starts looking towards the Atma then desires can be abolished.

Little one, if the intellect forgets the Atma and becomes subservient to the mind, and the mind disregards both the intellect and the Atma to serve the sense organs, then the sense organs, whose only function is contact with sense objects, starts clinging to those objects. Thus the objects assume mastery. The individual becomes blind and only desire for objects remains.

Attachment to the body is the root cause of this entire cycle which started the moment man regarded himself as the body and called himself ‘I’. As this attitude grew stronger, he became individualistic and abandoning Truth, he became a body-worshipper.

अध्याय ३

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:।।४२।।

अब भगवान ने कहा कि :

शब्दार्थ :

१. इन्द्रियों को बलवान् कहते हैं;

२. किन्तु इन्द्रियों से परे मन है

३. और मन से परे बुद्धि है

४. और बुद्धि से भी अत्यन्त परे आत्मा है।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! भगवान कहते हैं, माना कि इन्द्रियाँ बहुत बलवान् हैं और विषयों में भ्रमण करती रहती हैं, किन्तु मन इन्द्रियों से भी बहुत बलवान् है।

क) यदि मन इन्द्रियों का साथ न दे तो इन्द्रियाँ निर्बल हो जाती हैं।

ख) यदि मन इन्द्रियों का साथ न दे तो इन्द्रियाँ विषयों की ओर नहीं जातीं।

ग) यदि मन की रुचि कहीं और हो जाये तो इन्द्रियाँ मन के रुचिकर विषय की ओर बढ़ जाती हैं।

घ) गर मन इन्द्रियों का साथ न दे तो इन्द्रियों के सम्पूर्ण अर्थ व्यर्थ हो जाते हैं।

ङ) इन्द्रियाँ विषयों से जो सम्पर्क करती हैं, मन ही उनका उपभोग करता है।

च) यदि मन की उस उपभोग में रुचि न हो तो विषय सम्पर्क रहते हुए भी विषय नीरस हो जायेंगे।

छ) यदि मन में कामना ही न उठे तो विषयों की ओर प्रेरित करने वाला मन नहीं रह जायेगा।

ज) फिर विषय सम्पर्क हो या न हो तो भी फ़र्क नहीं पड़ेगा।

भगवान फिर यह भी तो कह कर आये हैं कि यदि मन अपने आन्तर में विषयों का चिन्तन करता है तो वह मिथ्याचारी है। मन को चाहिये, कि वह :

1. विषयों की ओर से अपने आपको हटा ले।

2. विषयों का ध्यान छोड़ दे।

3. विषयों की रसना की रसिकता छोड़ दे।

इसके लिये भगवान कहते हैं, कि मन से बुद्धि बलवान् है। यह बुद्धि,

क) मन को ज्ञान समझा सकती है।

ख) उचित अनुचित का भेद दर्शा सकती है।

ग) मन को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है।

घ) मन के लिये श्रेष्ठ गुणों को रुचिकर बना सकती है।

ङ) मन को मना सकती है।

च) सत् असत् का ज्ञान अपने मन को दे सकती है।

छ) अपने मन पर प्रभुत्व पा सकती है।

ज) अपने ही मन से तर्क वितर्क भी कर सकती है।

फिर कहा, बुद्धि से परे आत्मा है। यह बुद्धि, यदि अपने से श्रेष्ठ आत्मा की ओर देखने लग जाये तो कामना का नितान्त अभाव हो सकता है।

नन्हीं! जब बुद्धि, आत्मा को भूल कर, मन के पीछे लग गई, मन बुद्धि और आत्मा को भूल कर इन्द्रियों के पीछे जाने लगा, तब इन्द्रियाँ, जो केवल विषय सम्पर्क ही कर सकती हैं, विषयों से लिपट जाती हैं। तत्पश्चात् विषय प्रधान होने लग जाते हैं। तब इन्सान अन्धे हो जाते हैं, उन्हें विषयों की ही कामना रह जाती है। इस सबका मूल तनो तद्‍रूपता ही है। जिस पल प्राणी ने अपने आपको प्रथम बार तन मान कर तन को ‘मैं’ कहा, उस पल से यह आरम्भ हो गया। उस पल से देहात्म बुद्धि दृढ़ीभूत होने लगी और जीव व्यक्तिगत होने लगा। फिर वह सत्य को छोड़ कर, तनो उपासक हो गया।

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