Chapter 3 Shloka 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।४१।।

O Arjuna! Having first controlled the senses,

renounce this sinful desire which destroys

both knowledge and practical wisdom.

Chapter 3 Shloka 41

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।४१।।

Bhagwan instructs Arjuna to conquer desire:

O Arjuna! Having first controlled the senses, renounce this sinful desire which destroys both knowledge and practical wisdom.

Now the Lord says to Arjuna, “First of all acquire control over the senses. Then free yourself from the shackles of this sinful desire which destroys both knowledge and its practical translation into life. Become its master and annihilate it completely.”

Gyan (ज्ञान) – Knowledge

1. Gyan is literal knowledge.

2. It means to know an object in its entirety.

3. To understand the words and essence of the Scriptures is gyan.

4. To gain knowledge of the Atma and the jivatma or the embodied soul.

5. Intellectual comprehension of the Truth is gyan or knowledge.

6. The Scriptures are full of knowledge.

7. Gyan is the knowledge which tells of the Essence of man.

Vigyan (विज्ञान)

1. It is the methodical practice of gyan in life.

2. It enables gyan to flow into life.

3. Vigyan gives a manifest form to the knowledge of the Self and establishes the aspirant in his divine Essence.

4. Gyan is the word and vigyan is its manifestation.

5. It is the experience of gyan in life.

6. While gyan tells of the Truth, vigyan gives the proof through practical application.

The Lord says that this desire is so sinful that:

a) it abducts one’s knowledge;

b) it does not allow gyan to establish itself in one’s life;

c) overpowered with desire one forgets the gyan accumulated in the intellect;

d) then one engages in deeds that are callous and terrifying.

Therefore one must attain mastery over desire, one must become free of it.

The annihilation of desire

Why does desire conquer man time and again? Because though we acquire the knowledge of abidance in the Self – our true essence, we forget that it must take a practical shape in our lives.

1. If we engage in nishkam karmas or deeds devoid of selfish desire, the interest of the mind will grow in Truth. Desire will naturally wane and vanish.

2. Practice renunciation of the body idea; employ your body in the service of the other – the mind, too, will become absorbed in the same practice.

3. If you always have the Lord as your witness, the storm of desire is bound to abate.

4. Of course, if your aspiration to become an Atmavaan takes precedence over all else, desire will never even touch you.

This is the method of control of the senses and of overcoming desire.

अध्याय ३

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।

पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्।।४१।।

अब भगवान कामना को जीतने के लिये कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. इसलिये हे अर्जुन! तू पहले इन्द्रियों को नियम में करके,

२. इस ज्ञान, विज्ञान के नाश करने वाले पापी काम का परित्याग कर दे।

तत्व विस्तार :

अब भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू पहले इन्द्रियों को नियम युक्त कर ले और अपने अधिकार में ले ले। फिर ज्ञान तथा जीवन रूप विज्ञान को नाश करने वाले इस पापी से स्वतंत्र हो जा, विमुक्त हो जा, छुटकारा पा ले! इस ज्ञान तथा जीवन रूप विज्ञान को नाश करने वाले पापी का अभाव कर दे; इस पर प्रभुत्व पा ले; इसका अस्तित्व ही मिटा दे।

ज्ञान तथा विज्ञान को भी समझ ले।

ज्ञान :

1. ज्ञान शब्द ज्ञान को कहते हैं।

2. किसी भी विषय के बारे में सब कुछ जान लेने को ज्ञान कहते हैं।

3. शास्त्र के कथन का पठन तथा उसके सूक्ष्म तत्व की समझ को ज्ञान कहते हैं।

4. आत्मा तथा जीवात्मा के बारे में सब कुछ जान लेने को ज्ञान कहते हैं।

5. बुद्धि के स्तर पर तत्व ज्ञान का ग्रहण होना ज्ञान कहलाता है।

6. शास्त्र ज्ञान से परिपूर्ण हैं।

7. ज्ञान स्वरूप की बातें बताता है।

विज्ञान :

1. शब्द ज्ञान की क्रियात्मक प्रणाली को विज्ञान कहते हैं।

2. विज्ञान की राह से ज्ञान जीवन में प्रवाहित हो जाता है।

3. विज्ञान, स्वरूप के ज्ञान को आपके जीवन में रूप देकर आपको वास्तविकता में स्वरूप स्थित कर देता है।

4. ज्ञान शब्द है और विज्ञान उसका रूप है।

5. ज्ञान शब्द है और विज्ञान उसका जीवन में अनुभव है।

6. ज्ञान का प्रमाण विज्ञान है।

7. ज्ञान का साकार रूप विज्ञान के द्वारा बनाया जाता है।

8. ज्ञान सत् की बातें हैं, विज्ञान सत् की सत्यता को प्रमाणित करता है।

भगवान कहते हैं, यह काम इतना पापी है कि यह जीव के :

क) ज्ञान को भी हर लेता है।

ख) उसके जीवन में उसके अस्तित्व का भी नाश कर देता है।

ग) बुद्धि में जो ज्ञान भरा होता है, जीव जब मोह ग्रसित होता है, वह उसे भी भूल ही जाता है।

घ) वह तब जीवन में अति क्रूर तथा भयंकर कर्म कर बैठता है।

सो इस काम रूपा पापी से स्वतंत्र होना ही चाहिये। इस पर प्रभुत्व पाना ही चाहिये।

कामना का विध्वंस :

नन्हीं! देख यह कामना बार बार इसलिये जीत जाती है और जीव के न चाहते हुए भी उससे विवश पाप करवा लेती है, क्योंकि जीव स्वरूप का ज्ञान तो पढ़ते हैं, किन्तु स्वरूप में स्थित होने के लिये जीवन का जो रूप चाहिये, उसे भूल जाते हैं।

1. यदि निष्काम कर्म करने आरम्भ कर दें तो मन की रुचि उन्हीं में हो जायेगी। तब यह कामना भी ख़त्म होने लगेगी।

2. तनत्व भाव अभाव का अभ्यास कर लो। जब तन दूसरों को देने लगोगे तो मन भी उसी अभ्यास में लग जायेगा।

3. भगवान के साक्षित्व का गर नित्य अनुभव करोगे तो कामना के तूफ़ान नहीं उठेंगे।

4. यदि आत्मा से संग हो गया और आत्मवान् बनने में रुचि हो गई, तब कोई कामना आपको छू नहीं सकेगी।

इन्द्रियों को वश में करने की विधि भी यही है और महा पापी कामना का नितान्त अभाव भी इसी विधि हो सकता है।

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