Chapter 3 Shloka 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।३८।।

Just as fire is hidden by smoke,

a mirror is covered by dust

and a foetus concealed by the amnion,

so also is wisdom covered by desire and anger.

Chapter 3 Shloka 38

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।३८।।

Just as fire is hidden by smoke, a mirror is covered by dust and a foetus concealed by the amnion, so also is wisdom covered by desire and anger.

Now, by giving similes, Bhagwan illustrates how desire and anger conceal knowledge. “Just as smoke conceals the fire, so also desire is a smoke screen which prevents a person from seeing:

a) any other objects around him. All that remains is desire and the wish to partake of the object one craves.

b) Truth which should have been self evident.

c) the reality of manifest objects. The individual, enveloped by the smoke of desire, cannot see any object clearly.”

Then the Lord says that just as a mirror is hidden under cover of dust, so also are the discriminatory powers of a person with desire, covered up. When a mirror becomes dusty, one cannot see the reflected image clearly; in the same way, the vision of a person full of desires becomes dim.

1. Thus when the dust of desire covers the mirror of the intellect, it becomes difficult to see the Truth.

2. When that mental dust of desire obliterates the vision of the intellect, it cannot know the Truth.

3. It can no longer perceive the good or bad qualities of others.

4. Desire is that fearful mental grime which covers the discriminatory powers of the intellect. Then whatever one sees is unclear. The individual’s whole personality is ensnared by desire.

5. Thus enfolded, the jiva becomes as oblivious to his true being as is a foetus in the amniotic sac.

6. He becomes forgetful of the family honour.

7. He forgets even his own self respect. In fact, inspite of having eyes, he becomes foolish and blind.

Little one!

a) Desire is the quest to fulfil one’s likes.

b) It becomes irrelevant then whether one’s wishes will be harmful or beneficial to others.

c) There is no question of even considering whether one’s desire is good for oneself or not!

d) Extreme likes and dislikes are inherent in desire.

e) Desire is oblivious to right or wrong.

f) A mind impelled by desire endeavours only to make new and novel schemes for ego fulfilment.

g) Pride and the longing for revenge predominate in the mind of one who seeks desire satiation.

h) Where desire abides, there jealousy, opposition and enmity will co-exist.

i)  If any obstruction hinders the path of desire fulfillment, such people become merciless, cruel and evil doers.

Little one! The Lord says, likes and dislikes imbued with desire, smolder upon meeting with any obstacles. The frustration of one’s craving and thirst set the mind on fire. All mental traits produce immense clouds of smoke to hide one’s own deficiencies. This is why the intellect loses track of its duties. The person whose desires have been frustrated, forgetting in his agitation his own capacity or incapacity, becomes a monster of rage. Blinded by this fire, the ensuing madness of anger instigates him to perform shameful and wicked acts. Truth and untruth, right and wrong, duty and compassion – all are forgotten. His intellect has become dependent on the mind, and the mind, subservient to desires, only perpetrates injustice.

As long as he carries on satisfying his desires, the rajoguna will continue to increase. His dependence on his likes and his inhuman attitudes will also grow. If one does not control this fiend of desire immediately it will take one to complete destruction.

अध्याय ३

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।

यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।३८।।

अब भगवान काम रूप वैरी से ढके हुए ज्ञान के विषय में दृष्टान्त देकर समझाते हैं :

शब्दार्थ :

१. जैसे धुएँ से अग्नि और मल से दर्पण ढक जाता है

२. और जैसे जेर से गर्भ ढका हुआ होता है,

३. वैसे ही उस काम और क्रोध के द्वारा यह ज्ञान ढका हुआ होता है।

तत्व विस्तार :

अब भगवान विभिन्न दृष्टान्त देकर, कामना और क्रोध रूप ज्ञान पर आवरण के विषय में कहते हैं :

जैसे कि ‘धुएँ से अग्नि छिप जाती है’ वैसे ही :

क) काम के धुएँ के कारण स्थूल विषय भी दिखाई नहीं देता। केवल कामना और विषय उपभोग की चाह ही रह जाती है।

ख) ‘सत्’ जो प्रत्यक्ष होना चाहिये था, काम के धुएँ के कारण वह भी नहीं दिखता।

ग) कामना के धुएँ से मानो प्रत्यक्ष प्रमाणित वस्तु की वास्तविकता भी नहीं दिख सकती।

घ) ज्यों धुआँ अग्नि को छुपा लेता है, त्यों कामनापूर्ण जीव अपनी कामना से आवृत हुआ विषय को ध्यान से देख ही नहीं सकता।

फिर भगवान ने कहा, ज्यों मल से दर्पण ढ़का हुआ होता है वैसे ही कामना पूर्ण जीव का विवेक भी ढ़का हुआ होता है। यानि, दर्पण पर जब मल आ जाये तो उसमें जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, वह स्पष्टता से दिखाई नहीं देता; वैसे ही कामनापूर्ण जीव की दृष्टि धुँधली हो जाती है।

1. उसी विधि, जब कामना रूपा मल बुद्धि रूपा दर्पण को आवृत कर देता है तो सत् को जानना कठिन हो जाता है।

2. मनो मल से आवृत बुद्धि सत्यता को नहीं जान सकती।

3. मनो मल से आवृत बुद्धि दूसरे के गुण अवगुण नहीं पहचान सकती।

4. कामना ही वह महा भयंकर मनो मल है, जो बुद्धि के विवेक को आवृत कर देती है। तब जो भी दर्शन होता है, स्पष्ट नहीं होता। काम जीव के पूर्ण व्यक्तित्व को घेर लेता है।

5. जीव जेर में घिरे हुए शिशु के समान अपने आपको भूल ही जाता है।

6. अपने कुल की लाज मर्यादा को भी भूल ही जाता है।

7. अपना मान भी उसे भूल जाता है।

इस विधि वह जीव मूर्ख बन जाता है तथा आँखों के होते हुए भी अन्धा बन जाता है।

मेरी नन्हीं लाडली!

क) कामना अपनी रुचि पूरी करने की अभिलाषा है।

ख) अपने अरमान दूसरे के लिये हितकर या अहितकर हैं, यह सोचने का वहाँ प्रश्न ही नहीं उठता।

ग) कामना अपने लिये भी हितकर है या अहितकर है, यह सोचने का भी प्रश्न ही नहीं उठता।

घ) कामना में अथाह राग द्वेष निहित हैं।

ङ) कामना उचित और अनुचित से अनभिज्ञ है।

च) कामी के मन में अपनी अहं पूर्ति के लिये नित नव नूतन विकार उठते रहते हैं।

छ) इनमें दम्भ, दर्प, प्रतिशोध की भावना बहुत होती है।

ज) जहाँ काम रहता है, वहाँ ईर्ष्या, विरोध, शत्रुता, ये भी साथ साथ रहते हैं।

झ) फिर, जब अपनी लालसा पूरी न हो और राहों में कोई आ जाये, तो ये निष्ठुर, क्रूर और दुराचारी बन जाते हैं।

नन्हीं! भगवान कहते हैं, राग और द्वेष, जिनमें कामना बसी रहती है, इनकी राहों में बाधा आने से आन्तर से ही धुआँ उठ आता है।

कामना तृष्णा जब पूर्ण न हों, तो मन में आग सी लग जाती है। तब, आन्तर में जितनी चित वृत्तियाँ हैं, वे सब मिलकर धुआँदार अग्न लगा देती हैं और अपनी ग़लती छुपा लेती हैं। इस कारण जीव की बुद्धि किंकर्तव्य विमूढ़ हो जाती है।

अतृप्त कामना वाला अपनी पात्रता अपात्रता न समझ के चलायमान हुआ, क्रोध का रूप धर लेता है। क्रोध की अग्न से जीव अन्धा हो जाता है। उस पागल पन के नशे में चूर, वह कुछ भी अनिष्ट अथवा निष्ठुर या कुटिल कर्म कर सकता है।

तब सत्य असत्य, उचित अनुचित, दया, धर्म का ज्ञान तथा विवेक, ये सब वह भूल जाता है। उसकी बुद्धि मन के अधीन और मन कामना के अधीन हुआ अनिष्ट ही करता है।

जब तक कामना की पूर्ति करते जायेंगे, रजोगुण बढ़ता जायेगा, रुचि की अधीनता बढ़ती जयेगी और वहशत भी बढ़ती जायेगी।

यदि अब भी इस कामना को वशीभूत न किया तो सर्वनाश हो जायेगा।

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