Chapter 3 Shloka 37

श्री भगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।३७।।

Bhagwan says:

It is desire; it is anger, born of Rajoguna.

It is insatiable and a great sinner.

In this respect it is our enemy.

Chapter 3 Shloka 37

श्री भगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।३७।।

In reply to Arjuna’s question, Bhagwan says:

It is desire; it is anger, born of Rajoguna. It is insatiable and a great sinner. In this respect it is our enemy.

The Lord clarifies, ‘Desire and anger both born of Rajoguna have the power to force you to sin even if you do not desire to do so.’

Kaam (काम) – Desire

When one is attached to a certain object:

1. That which instigates one to achieve it, is desire.

2. The wish to enjoy it on obtaining it, is desire.

3. The strong inclination and thirst for that object in order to obtain satiation from it, is desire.

4. Longing and greed for an object, is desire.

Vishaya – Objects

Every phenomenon of this world is an object. Gross articles, emotions, knowledge, attitudes, even aberrations of the mind are ‘objects.’ A person’s aspirations, his intellect, his mental world are also ‘objects.’ The desire for respect is also the desire for an object. In fact, everything in the world but the Atma is an object.

Thus, all desire can be classified as ‘kaam’. Any attachment with the sensory world evokes desire. So long as one’s identification with the body does not cease, desire cannot be annihilated. It can be strong or weak – but it cannot be abolished.

Only an Atmavaan can be desireless because he has transcended body attachment.

Krodha (क्रोध) – Anger

1. Anger is aroused when one’s desired object is not attained.

2. It arises against anything that comes in the way of desire fulfilment.

3. It is that violent force which inflicts pain and harm and is ready to erase any hindrance in its path from the face of the earth.

4. It is that flaring up of the mind that seeks revenge.

5. It is an insanity of the mind which tends to make one forget one’s own and the other’s status.

6. It destroys civilized, humane behaviour.

7. In anger one wishes to destroy the other even at the risk of self destruction.

8. Anger makes one completely blind.

Desire is aroused by attraction to an object. Anger is caused by one’s failure to obtain that object of one’s desire.

Anger and desire are both tyrannical and merciless qualities. All demonic qualities serve as their weapons. In this shloka the Lord calls them ‘mahashanah (महाशनः) i.e. insatiable demons with a large stomach. The more they get, the more their appetite increases.

The world is full of objects.  If you start desiring each thing that you like, when will desires end? It takes a lifetime to fulfil even one desire – then what will happen to the individual who has countless desires to fulfil? People are amassing wealth because it enables them to buy anything to which they are attracted. But they never feel it is enough because it cannot satisfy all their desires. Hence the desire for wealth is ever increasing. Thus greed is born.

(For the topic of anger see Chp.2, shloka 62 and 63; Chp.16, shloka 2 and 4; Chp.18, shloka 53.)

Lobh – Greed

Excessive greed leads to sin. Blinded by greed, people will let others starve, they will torture or destroy others in their pursuit of satiation. They do not think twice before committing the greatest crime to satiate their greed.

In the same way if anyone has a desire and if any obstruction comes in the way of fulfilling his desire, then anger is born.

a) People get blind with anger and they do not mind even killing the other!

b) They rejoice at others’ sorrow.

c) There is no hesitation in ruining the other’s reputation through false insinuations.

d) They use varied means to deprive the other of his peace of mind.

The Lord explains that people with desire and anger are ruled by Rajoguna, which forces them towards a life of sin. It is man’s greatest enemy. It destroys the humaneness of an individual. It turns a man into a beast.

अध्याय ३

श्री भगवानुवाच

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।

महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।३७।।

अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं :

शब्दार्थ :

१. यह काम है, यह क्रोध है,

२. जो रजोगुण से उत्पन्न हुआ है।

३. यह बहुत खाने वाला और महापापी है,

४. इसको तू इस विषय में वैरी जान।

तत्व विस्तार :

भगवान कहने लगे, अर्जुन! यह जो तूने पूछा, कि कौन सी शक्ति है जो जीव से बलात्कार से पाप करवा लेती है, उसका उत्तर भी सुन ले!

‘रजोगुण से उत्पन्न हुए इस काम और क्रोध में वह शक्ति है, जो आपके न चाहते हुए भी आपसे पाप करवा लेती है।’

नन्हीं! प्रथम ‘काम’ को सविस्तार समझ ले।

काम :

जब किसी विषय से संग हो जाता है तब :

1. उस विषय को पाने की जो इच्छा उठ आती है, उसे काम कहते हैं।

2. उस विषय को पाकर जो उपभोग की चाहना उठती है, उसे काम कहते हैं।

3. विषयों से तृप्ति की इच्छा को, विषयों की उत्कट आकांक्षा और तीव्र पिपासा को काम कहते हैं।

4. विषयों की आसक्ति और विषयों से आशा रखने को काम कहते हैं।

5. दिल में विषयों की हसरत और विषयों के प्रति जो लोलुपता है, उसको काम कहते हैं।

6. विषयों की इच्छा को काम कहते हैं।

विषय :

नन्हीं! याद रहे, संसार की हर वस्तु विषय है। संसार की हर स्थूल वस्तु, हर सूक्ष्म वस्तु, हर ज्ञान, हर भाव तथा जीव के मनोविकार भी विषय ही हैं। जीव के मन के उद्गार भी विषय ही हैं तथा जीव का मनो संसार भी विषय ही है। जीव की बुद्धि भी एक विषय ही है। जीव की मान की चाहना भी विषय की चाहना ही है। केवल आत्मा ही किसी का विषय नहीं, अन्य जो कुछ भी है, वह विषय ही है।

इस कारण जान ले, कुछ भी चाहना ‘काम’ ही है। स्पर्श मात्र संसार में जहाँ संग हो जाये, वहाँ काम उठ ही आता है। वास्तव में जब तक आपका तनत्व भाव नहीं जाता तब तक काम का नितान्त अभाव नहीं होता, न ही हो सकता है। कामना गौण और तीव्र हो सकती है, उसका अभाव नहीं होता। पूर्ण रूप से कामना का अभाव नित्य निरासक्त, निष्काम स्थित आत्मवान् में ही होता है।

क्रोध :

जिस पल जीव को वांछित विषय की प्राप्ति नहीं होती :

क) वह राह में आये विघ्नों पर क्रोधित हो जाता है।

ख) वह राह में आई बाधाओं के प्रति भड़क जाता है।

ग) क्रोध चित्त वृत्ति के उस उग्र भाव को कहते हैं, जो कष्ट और हानि पहुँचाने वाला है।

घ) जिसे क्रोध आ जाये, वह राह में आये विघ्नों का नामोनिशान मिटा देना चाहता है।

ङ) क्रोध चित्त की वह भड़कन है जो दूसरे से बदला लेना चाहती है।

च) क्रोध ऐसी मनो मूर्खता है जो जीव को अपनी स्थिति और दूसरों की स्थिति भी भुला देती है।

छ) क्रोध इन्सानियत को बिल्कुल ही भुला देता है।

ज) क्रोध में आकर इन्सान दूसरे का बुरा चाहता है, चाहे उसका नाश करते करते अपना भी नाश हो जाये।

झ) क्रोध जीव को पूर्ण रूप से अन्धा बना देता है।

कामना विषय आसक्ति के कारण उठती है; क्रोध अपनी वांछित कामना की आपूर्ति के कारण उठता है। (क्रोध के सन्दर्भ में श्लोक २/६२,६३ १६/२,४ और १८/५३ देखिये।)

 वास्तव में यह दोनों गुण महा अत्याचारी होते हैं। यह दोनों गुण महा निष्ठुर तथा निर्दयी होते हैं।

सम्पूर्ण आसुरी सम्पदा इस क्रोध और काम के अस्त्र शस्त्र हैं।

इसे भगवान ने महाशन: कहा!

महाशन: का अर्थ है :

1. बहुत खाने वाला।

2. बड़े उदर वाला।

3. कभी तृप्त न होने वाला।

4. जितना भोगो, उतनी अतृप्ति और बढ़े।

5. जो जितना पाता है, वह उसी विषय को उससे बढ़ कर और चाहने लगता है।

अब नन्हीं! यह देख कि संसार तो सम्पूर्ण विषयों से भरा हुआ है। जिसको जो विषय भाये, वह उसी की कामना करने लगे, तो कामना कब ख़त्म होगी? एक विषय की ही चाहना ख़त्म नहीं होती, फिर जो संसार भर के विषयों की कामना करने लगे उसका क्या बनेगा? संसार में कामनापूर्ण लोग इसी कारण धन से इतनी आसक्ति रखते हैं, क्योंकि धन में विषयों को खरीद कर आपकी कामना को पूरा करने की शक्ति है। जतना भी धन हो, जीव उसे कम ही समझता है, क्योंकि उसका सारा धन उसकी हर कामना को पूरा नहीं कर सकता। इस कारण लोभ बढ़ता ही जाता है।

लोभ :

इस लोभ से अन्धे हुए लोग, आजकल क्या क्या पाप नहीं करते? इस लोभ से अन्धे हुए लोग औरों को भूखा मारने पर तुले हुए हैं। इस लोभ से अन्धे हुए लोग औरों को तड़पाने पर तुले हुए हैं। इस लोभ से अन्धे हुए लोग कौन सी तबाही लाने में संकोच करते हैं? वे महा पाप करते हुए भी नहीं घबराते।

इसी विधि जब कामना वाले की किसी कामना पूर्ति में कोई विघ्न बन जाये, तब कामी को क्रोध आ जाता है। उस क्रोध से अन्धे होकर लोग :

क) दूसरों के प्राण भी ले लेते हैं।

ख) दूसरों का चैन हर कर मुदित होते हैं।

ग) दूसरों को तबाह करने की कौन सी युक्ति नहीं करते?

घ) झूठे इल्ज़ाम भी मढ़ कर दूसरों को बदनाम करते हैं और तबाह कर देते हैं।

भगवान कहते हैं कि कामना तथा क्रोध से भरा हुआ यह रजो गुण जिसके पास हो, वह विवश हुआ पाप ही करता जाता है। जीव का सबसे बड़ा वैरी यह रजोगुण ही है। जीव की इन्सानियत को तबाह करने वाला यह रजोगुण ही है। इन्सान को जानवर समान बनाने वाला यह रजोगुण ही है।

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