अध्याय ३
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतस:।।३२।।
देख नन्हीं! भगवान क्या कह रहे हैं :
शब्दार्थ :
१. जो दोष दृष्टि पूर्ण लोग मेरे इस मत को धारण नहीं करते,
२. उन्हें सर्व ज्ञान पूर्ण विमूढ़ गण,
३. तथा नष्ट हुए लोग जान।
तत्व विस्तार :
देख नन्हीं! भगवान कहते हैं; जो दोष दृष्टि के कारण उनका कहा नहीं मानते, वे सारा ज्ञान पाकर भी :
1. विमूढ़ ही हैं।
2. नष्ट हो जाते हैं।
3. अविवेकी रह जाते हैं।
4. अन्धे ही रह जाते हैं।
5. मोह ग्रसित रह जाते हैं।
6. अंधकार में ही रह जाते हैं।
7. तनत्व भाव का त्याग नहीं कर सकते।
8. कर्तृत्व भाव का त्याग नहीं कर सकते।
9. निष्काम भाव में स्थिति नहीं पा सकते।
10. निरासक्त नहीं हो सकते।
नन्हीं! इसलिये तो कह रहे हैं कि :
क) अपना तन अविवेकी गण के साधारण कामों के लिये भी दे दो।
ख) दूसरों के काम करना और दूसरों के सपने पूरे करना ही तनत्व भाव त्याग का अभ्यास है।
ग) अपना ममत्व भाव छोड़ कर औरों के ममत्व भाव को मत ठुकराओ।
घ) अपने तन, मन और बुद्धि के प्रति उदासीन होकर दूसरे लोगों के कार्यों का समर्थन करो।
ङ) लोगों को बुरा भला कह कर उन्हें छोड़ न दो, अपने तन को ‘मेरा नहीं’ कह कर लोगों को दे दो।
नन्हीं!
1. दिनचर्या में आत्मवान् की तरह विचरने का अभ्यास करो।
2. अहंकार रहितता का अभ्यास करो।
3. अपने जीवन को शास्त्र कथित वाक्यों से तोलो।
4. आपका जीवन शास्त्रों की जीती जागती प्रतिमा होना चाहिये।
5. आत्मवान्, ‘मैं आत्मा हूँ’ कभी नहीं कहते। वह तो साधारण जीवन में ऐसे जीते हैं जैसे कि उनकी कोई हस्ती ही नहीं।
6. सहज जीवन में उनका कोई प्रयोजन और योजन नहीं होता।
7. वह तो औरों के प्रयोजन अर्थ योजन बनाते हैं, किन्तु अपनी ही बनाई हुई योजनाओं से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं होता।
8. वह तो आलस्य रहित हुए, नित्य लोगों के काम करते रहते हैं। यदि उन्हें कोई काम न भी दे तो भी नित्य मुदित ही रहते हैं।
9. यानि, वह न तो निवृत्ति की चाहना करते हैं, न ही प्रवृत्ति की चाहना करते हैं। निवृत्ति प्रवृत्ति तन की होती है और वह तो तनत्व भाव को ही त्याग चुके हैं। अब तन कुछ करे या न करे, इसकी उन्हें परवाह नहीं।
नन्हीं साधिका! तन को परिस्थिति के थपेड़े खाने दो। तन को परिस्थितियों से बचाने का प्रयत्न वही कर सकता है जो इसे अपना माने, तुम तो तनत्व भाव त्यागना चाहती हो। जग से भागने वाले तन से नहीं उठ सकते, वह भगवान को क्या पायेंगे?
आपकी ‘मैं’ को आत्मा में समाना है। आप अपनी ‘मैं’ को अकेले ही ले आयें, तन को साथ क्यों ले जाते हो? तन इस जग को देते जाईये।
नन्हीं! ब्रह्म लोक में अकेले ही जा सकते हो। ब्रह्म लोक में आत्मा ही जा सकता है, जड़ तन नहीं जा सकता, चाहे वह तन अपना सहयोगी ही हो।