- Home
- Ma
- Urvashi
- Ashram
- The Arpana Ashram
- Universal Family
- Celebrations and Festivals
- The Arpana Family
- Principal Architects
- Inspirational Emblem
- Arpana’s Mission & Activities
- Temple Activities & Discourses
- Publications
- Audio & Video Research Office
- Spiritual Stage Presentations
- A Temple of Human Accord
- Arpana’s Archives & Library
- Visitors Comments
- Arpana Film
- Research
- Service
- Products
Chapter 3 Shloka 30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:।।३०।।
The Lord says, Therefore O Arjuna,
Reposing your faith in Adhyatam,
offer all your actions to Me.
Becoming thus cured of
the fever of desire and attachment, fight!
Chapter 3 Shloka 30
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:।।३०।।
The Lord says, Therefore O Arjuna,
Reposing your faith in Adhyatam, offer all your actions to Me. Becoming thus cured of the fever of desire and attachment, fight!
The Lord has said, “Rest your full faith in Adhyatam and then fight.”
What is Adhyatam?
1. It is the nature of the Supreme Brahm.
2. It is the nature of the Atma.
3. Knowledge of the divine nature of the Supreme and faith in that knowledge is Adhyatam.
4. Adhyatam is to inculcate the spirit of the Lord, in our daily living.
5. It is the method of transporting spiritual knowledge into action, in our daily lives.
6. Experiencing the Self is Adhyatam.
The Lord says, ‘O Arjuna! You are the Atma. Be established in that Atma. You are eternal and indestructible. You are beyond the gunas and are faultless. Only the body dies – that is its fate; but you are not the body, so do not fear death. These gunas which you attribute to yourself are not yours in reality. Renounce attachment with these. Nor are you master of the gunas that constitute the objects of the world. Why do you continue to oppose them?’
‘Do not be attached to the actions that flow from these gunas. Dedicate them to Me. These gunas will spontaneously execute their functions – any attachment with these is futile. Simply renounce attachment. These people who stand before you, are supporting adharma because they are bound by their innate gunas. They who support the wrong and the evil, and you who stand for the establishment of virtue, have mutually opposing attributes. It is inevitable that these will engage in a conflict whenever they come to a head. Therefore, do not be confused by what is a natural outcome of qualities – and fight!’
In other words, the Lord enjoins:
1. ‘These qualities are not yours. Renounce attachment with them. Whatever be the outcome of the conflict between these gunas, is inevitable. Cease to have any expectation of the outcome.
2. This body is not yours, nor can the warriors who stand before you claim their body to be their own. So cease to think of the outcome of the war.
3. Of what avail is it to place any hopes in inert gunas? These qualities will continue to fulfil their function blindly, irrespective of your expectations.
4. Victory or defeat in battle is also dependent on gunas.
5. Bound by the cords of expectation, you will only be plunged in joy and sorrow. Why confuse yourself thus?’
The Lord continues to advise:
a) Fight without ego and devoid of all thoughts of ‘me’ and ‘mine’.
b) Neither your body nor your gunas, nor your powers are in your control. They are the gifts with which nature has endowed you.
c) Relinquish attachment with your mind and intellect for these too are not in your control.
d) You have no control even over your own self – how can you claim any rights over others!’
Therefore the Lord says: “Be rid of this fever of attachment!”
1. Fever signifies disease.
2. Fever represents a decline in health.
3. Fever is caused by the accumulation of germs that weaken and destroy the body.
4. Sorrow, pain, remorse etc. constitute mental fever which enfeebles the mental powers.
5. When the germs of doership, body attachment and moha grip the individual, they deprive him of his true Essence. Then he no longer remains healthy – he no longer abides in his Self. He who should have been eternally free, blissful, devoid of aberrations and beyond duality, loses his innate state as well as his inherent contentment.
The Lord says ‘Be free of this fever!’
Little one, these words of the Lord show His immense Grace and compassion for Arjuna. He is saying to Arjuna, “Even if you are not an Atmavaan, have faith in what I say. Leave everything to Me and follow My words.”
Just see how the Lord Himself is persuading Arjuna!
अध्याय ३
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर:।।३०।।
भगवान कहते हैं, इसलिये हे अर्जुन!
शब्दार्थ :
१. तू अध्यात्म में निष्ठावान् होकर,
२. सम्पूर्ण कर्मों को मुझ पर समर्पण करके,
३. आशा ममता रहित होकर, युद्ध कर।
तत्व विस्तार :
नन्हीं! “अध्यात्म में निष्ठावान् होकर युद्ध कर” यह भगवान ने कहा! पहले अध्यात्म का अर्थ समझ ले!
अध्यात्म :
1. अध्यात्म ब्रह्म का स्वभाव है।
2. अध्यात्म आत्मा का स्वभाव है।
3. परम के स्वभाव के ज्ञान में निष्ठा ही अध्यात्म है।
4. जीवन में परम तत्व का विवेक लाने को ही अध्यात्म कहते हैं।
5. सत्त्व ज्ञान को विज्ञान में परिणित करने की विधि को अध्यात्म कहते हैं।
6. आत्म अनुभव को अध्यात्म कहते हैं।
भगवान कहते हैं, हे अर्जुन!
क) तू आत्म स्वरूप है, तू आत्मा में ही स्थित हो जा।
ख) तू अविनाशी है, तू अक्षर है, इस सत्त्व का रहस्य जान ले।
ग) तू गुणातीत, विकार रहित है, इसका तत्व सार जान ले।
घ) तू मृत्यु धर्मा तन है ही नहीं, सो तू मृत्यु की परवाह न कर।
ङ) ये प्राकृतिक देन, ये तनोगुण तेरे नहीं, तू इनसे संग छोड़ दे।
च) तू प्रकृति रचित जग के गुणों का पति नहीं, तो उनसे क्यों लड़ता रहता है?
गुणों से प्रेरित हुए कर्मों को तू अपना नहीं, उनको मुझ पर ही छोड़ दे। गुण तो स्वत: ही काज कर्म करते जायेंगे, इनसे तुम्हारा संग व्यर्थ है, तू संग छोड़ दे। यह जो लोग तुम्हारे सामने खड़े हैं, यह भी अपने गुणों से बन्धे हुए ही आज अधर्म का साथ दे रहे हैं। असुरत्व की ओर आकर्षित करने वाले आसुरी गुण तथा तुम्हारे देवत्व को स्थापित करने वाले दैवी गुण, विरोधी गुण है। जब अति हो जाये, तो इनका युद्ध तो होता ही है। इस कारण इन स्वत: सिद्ध गुणों से तू विचलित न हो और युद्ध कर।
यानि भगवान कहते हैं,
- गुण तो तुम्हारे हैं ही नहीं, इनसे संग छोड़ दे। गुण भिड़ाव का जो परिणाम होगा, सो होगा ही, तू नाहक फल की आशा छोड़ दे।
- जब तन ही तुम्हारा नहीं और सम्मुख खड़े योद्धाओं का तन भी इनका नहीं, फिर युद्ध के परिणाम में किसको क्या मिला, इस पर से ध्यान उठा ले।
- फिर, जड़ गुणों से आशा क्या करनी? वह तो प्रकृति के अधीन अपने काज, अन्धों की तरह करते जायेंगे।
- जय पराजय भी तो गुणों पर ही आधारित है।
- अपने आपको नाहक आशा पाश में बांध कर, तू केवल दु:खी सुखी ही तो होगा। क्यों व्यर्थ में अपने आपको चलायमान करते हो?
फिर भगवान ने कहा :
क) ममत्व भाव छोड़ दे और युद्ध कर।
ख) यानि, अपने तन को भी अपने अधिकार में मत समझ क्योंकि वह तुम्हारा है ही नहीं।
ग) अपने गुणों को भी अपने अधिकार में मत समझ क्योंकि वह तुम्हारे बस में ही नहीं हैं।
घ) अपनी शक्तियों को भी अपनी न समझ, वह भी गुणों की ही देन हैं और प्राकृतिक रचना हैं।
ङ) अपनी बुद्धि तथा मन से भी ममत्व भाव छोड़ दे, वह भी तुम्हारे अधिकार में नहीं है।
च) औरों पर अपना अधिकार समझना तो दूर रहा, तुम्हारा तो अपने पर भी अपना अधिकार नहीं।
भगवान कहते हैं, “इसलिये तू ज्वर से रहित हो जा।”
ज्वर :
- ज्वर रोग को कहते हैं।
- ज्वर स्वास्थ्य का हरण करता है।
- ज्वर तन को मिटाने तथा निर्बल बनाने वाले कीटाणुओं के संग्रह से उत्पन्न होता है।
- दु:ख दर्द, शोक इत्यादि क्षोभ मानसिक ज्वर होते हैं, जो मानसिक शक्तियों को क्षीण करते हैं।
- तनत्व भाव, कर्तृत्व भाव तथा मोह रूपा कीटाणु जब जीव को ग्रस लेते हैं तो वह अपने स्वरूप से ही वंचित हो जाता है।
- तब वह स्वस्थ नहीं रहता; अर्थात् ‘अपने में स्थित’ नहीं रहता।
- वह अपने स्वरूप में स्थित नहीं रहता। वह स्वरूप स्थित की नित्य स्वतंत्रता को खो देता है; नित्य आनन्दमय, निर्विकार, तथा निर्द्वन्द्व स्थिति को खो देता है।
- वह अपनी तृप्ति को खो देता है।
भगवान यहाँ कह रहे हैं, “तू ज्वर रहित हो जा।”
नन्हीं! इसको भी समझ ले कि यह कह कर भगवान ने अर्जुन पर अपार कृपा करी और कहा :
क) ‘माना तू अभी आत्मवान् नहीं हुआ, चल तू मेरा एतबार कर ले!
ख) अर्जुन! तू मेरी बात मान ले; मेरी बुद्धि की बात मान ले।
ग) चल! तू मुझ पर ही सब कुछ छोड़ दे।’
यह सब कह कर, अर्जुन को मना रहे हैं, साक्षात् भगवान्!