अध्याय ३
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते।।२८।।
फिर से गुणों को समझाते हुए भगवान कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञानी पुरुष,
२. सम्पूर्ण गुण गुणों में वर्तते हैं, ऐसा मान कर आसक्त नहीं होता।
तत्व विस्तार :
नन्हीं आभा! तत्व ज्ञानी गण गुणों के प्रभाव को जानते हैं। इस कारण वह इस गुण खिलवाड़ से नित्य निरासक्त रहते हैं। नन्हीं! गुण को पुन: समझ ले।
गुण किसे कहते हैं :
1. हर प्रकार का विशेषण गुण है।
2. हर प्रकार का प्राकृतिक स्वभाव गुण है।
3. हर विषय की निहित क्षमता गुण है।
4. हर विषय में निहित लक्षण गुण है।
5. हर विषय की विशेषता गुण है।
6. हर विषय में निहित सद्गुण या दुर्गुण, दोनों को ही गुण कहते हैं।
7. हर विषय की स्वाभाविक क्रिया शक्ति को गुण कहते हैं।
8. हर विषय की उपभोग शक्ति गुण है।
9. हर विषय की प्रभाव शक्ति गुण है।
10. हर विषय का मूल धर्म गुण है।
11. हर विषय का अस्तित्व सार गुण है।
गुण विभाग :
क) विषय सौम्य गुण वाले भी होते हैं।
ख) तीक्ष्ण गुण वाले विषय भी होते हैं।
ग) गौण गुण वाले विषय भी होते हैं।
घ) तीव्र गुण वाले विषय भी होते हैं।
ङ) विषय सौम्य भाव प्रदुर करने वाले अथवा तीक्ष्ण भाव को प्रदुर करने वाले भी होते हैं।
च) विषय चाहना को बढ़ाने वाले अथवा चाहना को मिटाने वाले भी होते हैं।
छ) क्षोभ को उत्पन्न करने वाले अथवा आनन्द को उत्पन्न करने वाले विषय भी होते हैं।
यानि, सम्पूर्ण संसार के विषय त्रिगुणात्मक शक्ति से रचित, त्रैगुणपूर्ण ही होते हैं।
नन्हीं! अब आगे समझ :
1. जीव का तन भी गुणों से पूर्ण है।
2. जीव का मन भी गुण पूर्ण है।
3. जीव की बुद्धि भी गुणों से परिपूर्ण है।
4. जीव का वाक् भी गुणों से युक्त है।
5. जीव का भाव भी गुण युक्त है।
6. जीव का हर मनोद्गार गुण पूर्ण है।
7. जीव की चाहना, लग्न इत्यादि भी गुणपूर्ण ही होते हैं।
8. जीव का ज्ञान भी गुण पूर्ण होता है।
9. जीव की भक्ति भी गुण पूर्ण होती है।
10. जीव की श्रद्धा भी गुण पूर्ण होती है।
इससे जान लो कि जीव स्वयं गुणों का पुतला है। संसार का हर स्थूल पदार्थ भी गुणों से भरा हुआ है। जब दो विभिन्न गुणों वाले आपस में मिलते हैं, तो उनमें मिलन के कारण नये गुण प्रदुर हो जाते हैं।
गुण तीन प्रकार के माने गये हैं, सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण।
1. सतोगुण जीव को सहज ही प्रकाश, ज्ञान तथा सुख की ओर ले जाता है।
2. रजोगुण जीव को सहज ही लोभ तथा तृष्णा पूर्ण बना देता है।
3. तमोगुण जीव को आलस्य तथा अप्रकाश की ओर खेंचता है तथा जीव को जड़ता की ओर ले जाता है।
अब यह तीनों गुण सब में होते हैं और आपस में मिश्रित हैं। यह तीनों गुण आपस में एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। किसी में कोई गुण गौण होता है और कोई अन्य गुण अधिक प्रभावशाली होता है।
गुण गुणों को अपनी ओर आकर्षित करके उन्हें :
क) और प्रभावशाली बना सकते हैं।
ख) गौण कर सकते हैं।
ग) तीव्र कर सकते हैं।
घ) तीक्ष्ण कर सकते हैं।
ङ) नपुंसक बना सकते हैं।
च) सौम्य बना सकते हैं।
छ) धर्मात्मा बना सकते हैं।
ज) यज्ञमय जीवन की ओर ले जा सकते हैं।
झ) अत्याचारी बना सकते हैं, इत्यादि।
यह तो गुणों का खिलवाड़ है।
1. देखना तो यह है कि किस गुण पर किस गुण का आधिपत्य है?
2. देखना तो यह है कि किस गुण को कौन सा गुण कैसा बना देता है?
3. जीवन में गुणों की गुणों पर प्रतिक्रिया का राज़ समझ लेना महा विज्ञान है।
4. कौन सा गुण दूसरे के गुणों को कैसे प्रभावित करता है, यह राज़ जीवन में तत्ववित्त लोगों को विज्ञानमय तथा दूर से गुण खिलवाड़ देखने वाला बना देता है।
नन्हीं! भगवान स्वयं इन गुणों को आगे बहुत विस्तार पूर्वक समझाते हैं। सो गुण गुणों का विस्तार तुम भगवान के मुखारविन्द से स्वयं सुन लेना।
गुणातीतता :
यहाँ इतना ही कहना बनता है कि तत्व को जानने वाले, गुणों का खिलवाड़ देख कर :
1. गुणों से आसक्त नहीं होते।
2. गुणों से प्रभावित नहीं होते।
3. गुणों से वह घबराते नहीं हैं।
4. वह दृष्टा बन कर निर्लिप्त हुए गुणों को देखते हैं।
5. गुणों के प्रभाव से वह नित्य अप्रभावित रहते हैं।
6. गुणों से संग न करते हुए वह नित्य निर्लिप्त रहते हैं। यानि, वह गुणातीत हो जाते हैं।
7. वह अपने तन के गुणों से भी आसक्ति नहीं करते।
8. वह अपने तन के गुणों से भी अप्रभावित रहते हैं।
9. उनकी बुद्धि उनके अपने ही गुणों से विचलित नहीं होती।
10. यदि वह महा श्रेष्ठ भी हो तो भी उन्हें अपनी श्रेष्ठता का गुमान नहीं होता; और यदि उन्हें कोई श्रेष्ठ न माने, तो भी वह विचलित नहीं होते।
11. वह दूसरों के गुणों का दोष दूसरों के स्वरूप पर नहीं मढ़ते।
12. वह दूसरों को बुरा भला नहीं कहते क्योंकि वह लोगों की विवशता को भली प्रकार जानते हैं।
13. वह गुणों के बल और छल को जानते हैं, इस कारण वह गुणों से आसक्ति नहीं करते।