Chapter 3 Shloka 27

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

All actions are performed

by the gunas of Prakriti;

a deluded egoist thinks that he is the doer.

Chapter 3 Shloka 27

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

All actions are performed by the gunas of Prakriti; a deluded egoist thinks that he is the doer.

Little one! The Lord is explaining here that the individual is in actual fact a non-doer. He says:

1. All actions performed by an individual are spontaneously activated by the qualities bestowed upon him by Nature.

2. The foolish and ignorant take credit for doership.

3. They erroneously believe that they can act or refrain from action on their own.

In actual fact one can take no credit even for one’s own birth: one did not choose the family into which one is born, one’s relations, one’s status or even one’s sex. It is all an act of nature. Did one know what one’s complexion, looks, height would be? All are wrought by nature.

A foolish person takes credit for all these as if he himself is the doer, and can never comprehend the play of the gunas. If one tries to claim the credit for one’s personal assets, influential relations etc. one will be enmeshed in illusion even in the gross sphere. If on the other hand, one perceives all these as gifts of nature and renounces attachment to them, then one may be able to progress further to detaching oneself from one’s subtle qualities and their achievements.

All one’s qualities are a gift of nature, born out of the three gunas, Sattva, Rajas and Tamas. Some are inherited and others imbibed from one’s environment or the people one meets. But even one’s environment, social circle or family life are not in one’s control. These have been created by the three fold qualities of nature. In vain does man first claim credit for his body and then its traits.

The effect of gunas (qualities)

The individual, bound by his own attributes, is constantly affected by the gunas of others and acts in accordance with the ensuing effect upon his gunas.

1. Some gunas attract and others repel.

2. Some are beneficial whilst others are obstructive.

3. Some erode the intellect whilst others strengthen one’s discerning faculty.

4. Some quell the emotions whilst others excite them.

5. Some inspire mercy within whilst others promote hard heartedness.

6. Some inspire friendship whilst others invoke enmity or hatred.

7. Some lead one to service of the Supreme whilst others lead to selfishness and egoism.

The Lord warns us that all that transpires in the world is controlled by these qualities.

a) The individual foolishly thinks that he controls his own actions and considers himself to be important or unimportant, thus inviting sorrow.

b) The Lord, in His compassion, is acquainting us with the knowledge of the gunas so that we can be rid of this futile ego and rise above the body self.

c) He is explaining the internal core and the external form of action, in order to free the individual from the illusory ego.

d) He is unveiling the mystery of the gunas so that we may be uninfluenced by action.

The Lord is thus commanding us:

1. Progress in sadhana – the practice of spiritual living. Actions will flow forth on their own accord.

2. Change your attitude; actions will, in any case, continue spontaneously.

3. Be detached; it is the gunas that control the actions.

4. Erase the ego and watch the play of the gunas from afar.

5. Annihilate the idea of ‘I’ and ‘mine’, renounce the body idea and become a witness to all that happens.

This is the attitude of an Atmavaan.

अध्याय

प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वश:।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

अब भगवान कहते हैं कि वास्तव में :

शब्दार्थ :

१. सम्पूर्ण कर्म प्रकृति द्वारा किये हुए हैं।

२. अहंकार से विमूढ़ हुआ प्राणी,

३. ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मानता है।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! यहाँ भगवान जीव के वास्तविक अकर्तापन की बात समझाते हैं और कहते हैं कि :

1. सम्पूर्ण कर्म जो जीव करता है, वह प्रकृति के दिये हुए गुणों के अनुसार स्वत: तन राही हो जाते हैं।

2. वे मूर्ख लोग हैं जो अपने आपको कर्ता मानते हैं।

3. कर्म तो स्वत: हो जाते हैं, वे मूर्ख लोग हैं जो समझते हैं कि हम इन्हें रोक सकते हैं या हम इन्हें कर सकते हैं।

4. देख नन्हीं! जीव कितना मूर्ख होता है! जब जन्म हुआ तब यह भी मालूम नहीं होता कि आपका जन्म हो गया है।

जिस कुल में जन्म हुआ, आप उसे पहले जानते नहीं थे। कुल की स्थिति क्या थी या क्या है, यह भी नहीं जानते थे। आपका लिंग क्या है, क्या होगा, यह भी आप नहीं जानते थे। यह भी आपने आपको स्वयं नहीं दिया, प्रकृति ने ही दिया है। आपका रूप, रंग, कद इत्यादि भी तो प्रकृति ने ही दिया है। आपके नाते रिश्ते भी तो प्रकृति ने ही आपको दिये हैं।

मूर्ख जीव इन सबको अपना लेता है और इन पर भी गुमान करने लगता है, फिर उसे गुणों का राज़ कैसे समझ आयेगा? यदि इस तन, कुल, नारीत्व या पुरुषत्व तथा नाते रिश्ते इत्यादि को अपना मान कर इन पर गुमान करते हो और ‘मेरे हैं’ कहते हो, तो आप स्थूल में ही भरमा गये हो। यदि आप उन्हें प्राकृतिक रचना जान कर उनसे संग छोड़ दो तो शायद अन्य सूक्ष्म तनो गुण तथा उनके परिणाम रूप होने वाले कर्मों से भी नाता तोड़ सको।

फिर समझने के यत्न कर नन्हीं! जीव में जितने गुण हैं, वह उसे प्रकृति ने दिये हैं। कुछ गुण तुम कहलो जीव के संस्कार रूप में उसके साथ आते हैं, अन्य गुण चाहे तुम कहो कि जीव अपनी परिस्थितियों या सहवासियों तथा अन्य सम्पर्क से ग्रहण करता है; किन्तु यह परिस्थितियाँ, नाते तथा अन्य सहयोग भी तो जीव के वश में नहीं होते। यह भी प्रकृति द्वारा ही रचित होते हैं। इस नाते कह सकते हैं कि जीव के पास जितने भी गुण, सद्गुण और दुर्गुण होते हैं, वह त्रिगुणात्मिका प्रकृति ने ही जीव को दिये होते हैं। जीव नाहक पहले तन को अपना लेता है फिर तन के गुणों को अपना लेता है।

गुण प्रभाव :

गुण बन्धा ही जीव औरों के गुणों से प्रभावित होकर अपने गुणों के अनुसार कर्म करता है, किसी के गुण:

1. आपको आकर्षित करते हैं।

2. आपको प्रतिकर्षित करते हैं।

3. आपके गुणों के सहायक बन जाते हैं।

4. आपके गुणों के विरोधी बन जाते हैं।

5. आपको बुद्धिहीन कर देते हैं।

6. आपको विवेकपूर्ण कर देते हैं।

7. आपको शान्त कर देते हैं।

8. आपको उत्तेजित कर देते हैं।

9. आपके गुणों से घृणा का गुण उत्पन्न कर देते हैं।

10. आपके गुणों से दया का गुण उत्पन्न कर देते हैं।

11. आपके गुणों से कठोरता का गुण उत्पन्न कर देते हैं।

12. आपके गुणों से मित्रता का गुण उत्पन्न कर देते हैं।

13. आपके गुणों से शत्रुता का गुण उत्पन्न कर देते हैं।

14. आपके गुणों को स्वार्थी बना देते हैं।

15. आपके गुणों को परमार्थी बना देते हैं।

नन्हीं! यह सब गुणों का गुणों पर प्रभाव होता है। यह सब गुणों का गुणों से खिंचाव होता है। यहाँ भगवान यही समझा रहे हैं कि जीवन में यह गुण ही जीव से सब कुछ करवाते हैं।

क) इन स्वत: होते हुए कर्मों को अपना कर जीव नाहक अपने आपको कर्ता मान लेता है।

ख) जीव ही अपने को श्रेष्ठ या न्यून मान कर दु:खी होता रहता है।

ग) जीव को आत्मवान् बनाने के लिये और उसे तनत्व भाव से उठाने के लिये भगवान अब गुण विवेक दे रहे हैं।

घ) मिथ्या अहंकार को मिटाने के लिये भगवान कर्मों के वास्तविक स्वरूप व रूप को समझा रहे हैं।

ङ) लोगों को कर्मों के प्रति उदासीन बनाने के लिये यह गुण राज़ बता रहे हैं।

मानो कहते हैं, कुछ करना है तो :

1. साधना कर, कर्म तो स्वत: होते हैं।

2. अपना दृष्टिकोण बदल ले, कर्म तो स्वत: होते ही जायेंगे।

3. उदासीन हो जा, यह गुण तो स्वत: कर्म करते जायेंगे।

4. अहंकार मिटा दे और गुणों का खिलवाड़ देखता जा।

5. मम भाव मिटा दे और गुण खिलवाड़ देखता जा।

6. अपना तनत्व भाव छोड़ दे और गुण खिलवाड़ देखता जा।

आत्मवान् यही करते हैं।

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