अध्याय३
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम र्वत्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।।२३।।
अब भगवान अर्जुन को समझाते हुए कहने लगे :
शब्दार्थ :
१. हे अर्जुन! यदि मैं आलस्य रहित हुआ कर्म न करूँ,
२. तो सब प्रकार से मनुष्य
३. मेरे वर्ताव के अनुसार वर्तने लग जायेंगे।
तत्व विस्तार :
भगवान अब अर्जुन को अपने कर्मों में प्रवृत्त रहने का कारण बताते हुए कहते हैं, कि :
1. यदि मैं सावधान हुआ कर्म नहीं करूँगा तो लोग भी कर्म छोड़ देंगे।
2. यदि मैं आलस्य रहित हुआ कर्म नहीं करूँगा तो लोग भी आलस्यपूर्ण हो जायेंगे।
3. यदि मैं तनत्व भाव अभाव पूर्ण कर्म नहीं करूँगा तो लोग यज्ञमय जीवन को समझ भी नहीं सकेंगे।
4. यदि मैं कर्म नहीं करूँगा तो लोग बिना परम स्थिति पाये, अपने कर्तव्य कर्म को छोड़ देंगे और पाप पूर्ण हो जायेंगे।
5. यदि मैं कर्म नहीं करूँगा तो लोग निष्काम कर्म करने बन्द कर देंगे और निष्काम भाव में स्थिति कभी नहीं पा सकेंगे।
6. मैं अहर्निश कर्म करता रहता हूँ; जग उन्हीं कर्मों को देख कर ही तो ज्ञान को समझ सकता है।
नन्हीं! फिर भगवान का प्रमाण भी तो भगवान का कर्म प्रवाह रूपा जीवन ही होता है। उनके इस प्रवाह रूपा जीवन से ही संसार समझ सकता है कि जीवन में किस तरह वर्तें। आश्चर्य की बात तो यह है कि:
1. नित्य अकर्ता, कर्म पति, कर्म करते हैं।
2. नित्य अभोक्ता, भोग पति, उपभोग करते हैं।
3. तन अपना न होते हुए भी वह इन्द्रिय रहित, इन्द्रियों की राह से विषयों से सम्पर्क करते हैं।
4. तन से परे वह तन रहित, तन धारियों के समान वर्तते हैं।
5. आत्मवान्, जो अपने प्रति अखण्ड मौन धारण किये हुए हैं, वे पर हित कारण नित्य बोलते हैं।
6. निराकार, वह नित्य उदासीन, जग में प्रेम की प्रतिमा भी बन जाते हैं।
7. तनत्व भाव से परे होने के कारण वे गुणातीत तथा निर्गुणियाँ गुण बधित हो जाते हैं।
नन्हीं आभा रूपा आत्मा! यदि तू इसका सार समझ सके तो यह जान लेगी कि भगवान सब कुछ करते हुए भी कुछ नहीं करते। किन्तु अजीब बात तो यह है, कि भगवान के इतना स्पष्ट कहने पर भी आजकल के ज्ञानी और भक्त लोग जीवन के कर्तव्यों का त्याग कर देते हैं और संसार में धर्म लाने या धर्म को स्थापित करने की जगह, संसार में धर्म की हानि करते हैं।