Chapter 3 Shloka  20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।

Supporting the necessity of action, the Lord says to Arjuna:

Janak and other perfect souls

attained the Supreme goal by deeds alone;

moreover, even for the maintenance of the world order,

you should perform actions.

Chapter 3 Shloka  20

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।

Supporting the necessity of action, the Lord says to Arjuna:

Janak and other perfect souls attained the Supreme goal by deeds alone; moreover, even for the maintenance of the world order, you should perform actions.

Little one, it is necessary to give the proof of a life lived in Truth to society, else one cannot understand the meaning of dharma. Since the life of the Sanyasi or the Atmavaan is immersed in yagya, his actions will naturally be for universal benefit. His very life will therefore promote the welfare of all.

The Lord says to Arjuna:

1. Raja Janak and other perfect ones reached perfection through endeavour.

2. King Janak ruled his kingdom in accordance with Dharma.

3. All his life, he worked for the good of all his subjects.

4. Thus he trod the ‘northern’ path until he was established in the enlightened spheres.

5. He performed deeds in the spirit of sacrifice as yagya. The yagyashesh, too, he placed at the feet of the Lord.

6. He renounced the pride of doership and severed all ties with the body idea.

7. He became an Atmavaan and merged in the Supreme.

All this was attained through the practice of meritorious deeds throughout his life. You, too, can achieve the Supreme state. You must act:

a) for the good of others;

b) to establish a meritorious code of conduct for all;

c) to illuminate the path of sadhana for all to follow;

d) to give proof of your spiritual state.

If you are truly a spiritual seeker, it is essential to engage in action.

अध्याय ३

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।

लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।२०।।

कर्म का समर्थन करते हुए, भगवान अर्जुन से कहने लगे कि :

शब्दार्थ :

१. जनक आदि ने भी कर्म से ही परम सिद्धि पाई थी।

२. फिर लोक संग्रह अर्थ भी तुझे कर्म करने ही चाहियें।

तत्व विस्तार :

नन्हीं! संग्रह अर्थ भी समझ ले :

संग्रह का अर्थ है समागम, मेलजोल करना, संरक्षण करना, शासन करना, पालन पोषण करना, नियन्त्रण करना और प्रतिबन्ध लगाना, संग्रह से अर्थ ‘सहारा देना’ या प्रोत्साहित करना भी हो सकता है।

नन्हीं! समाज को सत्मय जीवन का प्रमाण भी तो देना होता है, वरना समाज धर्म को नहीं समझ सकता।

फिर, संन्यासी तथा आत्मवान् का जीवन यज्ञमय होने के नाते लोक कल्याण पूर्ण होता है। वह तो सहज में सबका हित करने वाले होता है।

भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि :

1. जनकादि सिद्ध पुरुष कर्म राही ही सिद्धि पाये हैं।

2. उन्होंने धर्मानुकूल ही राज्य किया।

3. वे जीवन भर लोक कल्याण करते रहे।

4. वे श्रेय सों उत्तरायण की ओर बढ़ते रहे फिर शुक्ल पक्ष में स्थित हुए।

5. उनका जीवन यज्ञमय था तथा उन्होंने यज्ञशेष भी ब्रह्म के चरण धरा।

6. उन्होंने कर्तापन का गुमान छोड़ दिया और तन से नाता तोड़ दिया।

7. वह परम में जाकर टिक गये, यानि आत्मवान् हो गये।

वह कर्म राही ही सब पाये। तू भी कर्म ही क्यों नहीं करता? तू भी इस राह से सहज में ब्राह्मी स्थिति पा सकता है।

लोक संग्रह अर्थ, लोक कल्याण अर्थ लोकाचार की स्थापना अर्थ, लोक मर्यादा की स्थापना अर्थ भी कर्म करना उचित ही है। साधना विधि प्रमाण रूप भी कर्म करना उचित ही है। स्थिति का प्रमाण देने के लिये भी कर्म करना उचित ही है। गर तू साधक है तो हर दृष्टिकोण से तेरे लिये कर्म करना अनिवार्य है।

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