Chapter 3 Shloka 18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:।।१८।।

The Lord speaks of the Atmavaan:

Such a One has no use for accomplishment of action

 nor for deeds not accomplished; his dealings with

all beings are devoid of any selfish purpose.

Chapter 3 Shloka 18

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:।।१८।।

The Lord speaks of the Atmavaan:

Such a One has no use for accomplishment of action nor for deeds not accomplished; his dealings with all beings are devoid of any selfish purpose.

1. Such an Atmavaan is devoid of any purpose.

2. Being satiated in his own Self and desireless, what can he ask of anybody?

3. What to do or what not to do? He is beyond such dualities.

4. What can that desireless one ask of anybody? And what can anyone give to one who is devoid of desire?

5. He only seeks to satiate those in need.

6. He who is not dependent on any shelter, gives shelter to all.

7. His body becomes a veritable temple.

8. People come with all kinds of desires and needs, and they receive according to their faith in him.

9. Whosoever loves him truly, will inevitably become like him.

The consequence of proximity with the Atmavaan

1. Through constant proximity with such a one, his close associates naturally acquire knowledge.

2. They recognise the path of sadhana merely by witnessing the one who is knowledge itself.

3. In their endeavour to please their beloved Master, they embody the knowledge they receive from him.

4. His every word becomes an injunction for them, and they let no word fall to the ground unheeded.

For an Atmavaan the world holds no purpose. Desires spring from body requirements – he who has no claims over his body will naturally transcend desire. All likes and dislikes are similarly transcended. To do this, or that, or not to do, all such decisions lose their purpose. Victory and defeat, pursuit of action and desisting from action also pertain to the body. If the body itself no longer remains important, all these dualities lose meaning for such a one. The body continues to perform deeds in accordance with its inherent nature. Yet, such a one is no longer attached to its nature and qualities. He has transcended duty. No purpose remains to be fulfilled.

अध्याय ३

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।

न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:।।१८।।

भगवान आत्मवान् की बात करके कहते हैं कि :

शब्दार्थ :

१. ऐसे पुरुष का इस संसार में,

२. न कुछ किये जाने से प्रयोजन होता है,

३. और न ही कुछ न किये जाने से प्रयोजन है,

४. तथा इनका सम्पूर्ण भूत प्राणियों से कुछ भी स्वार्थ नहीं।

तत्व विस्तार :

ऐसा आत्मवान् जीव :

क) प्रयोजन रहित होता है।

ख) आत्म तुष्ट, आप्तकाम और नित्य तृप्त आप है।

ग) क्या करना है क्या नहीं करना, इस द्वन्द्व से रहित है।

घ) किसी से क्या अब माँगे, जब कोई माँग ही नहीं रह जाती?

ङ) जो चाहना रहित है; उसको कोई क्या दे सकता है?

च) कोई उससे कुछ भी माँगे, वह सबकी झोली भर देता है।

छ) वह आप निराश्रय है, पर सबका आश्रय बन जाता है।

ज) मानो तन जो रह गया, वह भगवान का मन्दिर ही बन जाता है।

झ) बहु चाहना हिय धरी जग वाले उसके पास आते हैं और अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार उस आत्मवान् से सब कुछ पा जाते हैं।

ञ) जो भी उससे सच्चा प्यार करें, वे वैसे ही बन जाते हैं।

आत्मवान् सहवास परिणाम :

1. आत्मवान् के अहर्निश सहवास से ज्ञान तो साधक सहज ही जान जाते हैं।

2. ज्ञान स्वरूप सामने देख कर साधना राह भी पहचान जाते हैं।

3. गर प्रियतम वह ही बन जाये, उसको ही रिझाना चाहते हैं।

4. जो भी ज्ञान उससे पाया, उस ज्ञान की प्रतिमा भी वे बन जाते हैं तथा उस ज्ञान का रूप धर आते हैं।

5. ऐसे आत्मवान् के भक्त के लिये आत्मवान् के शब्द आदेश बन जाते हैं और वे भक्त आत्मवान् के आदेश को शिरोधार्य करके पल भर में वैसे ही बन जाते हैं।

आत्मवान् के लिये संसार कोई अर्थ नहीं रखता। तन के नाते चाहना उठती है। उसका तन ही नहीं रहा, तो चाहना कैसी? तन के नाते राग द्वेष होते थे, तन से नाता गया तो वे सब चले गये। जग से प्रयोजन तन के नाते होता है। यह करना है, यह नहीं करना, यह भी तन के नाते ही होता है। विजय पराजय भी तन की ही होती है। निवृत्ति में रुचि या प्रवृत्ति की परवाह भी तन के नाते ही होती है।

जब तनत्व भाव अभाव हो ही गया तब तन की बातें कौन करे? तन गुण बंधा जो करे सो करे, अब गुणों से भी उसका संग नहीं रहता। ऐसे जीव का न तो कोई कर्तव्य होता है, न ही कोई प्रयोजन रह जाता है।

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