अध्याय ३
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:।।१८।।
भगवान आत्मवान् की बात करके कहते हैं कि :
शब्दार्थ :
१. ऐसे पुरुष का इस संसार में,
२. न कुछ किये जाने से प्रयोजन होता है,
३. और न ही कुछ न किये जाने से प्रयोजन है,
४. तथा इनका सम्पूर्ण भूत प्राणियों से कुछ भी स्वार्थ नहीं।
तत्व विस्तार :
ऐसा आत्मवान् जीव :
क) प्रयोजन रहित होता है।
ख) आत्म तुष्ट, आप्तकाम और नित्य तृप्त आप है।
ग) क्या करना है क्या नहीं करना, इस द्वन्द्व से रहित है।
घ) किसी से क्या अब माँगे, जब कोई माँग ही नहीं रह जाती?
ङ) जो चाहना रहित है; उसको कोई क्या दे सकता है?
च) कोई उससे कुछ भी माँगे, वह सबकी झोली भर देता है।
छ) वह आप निराश्रय है, पर सबका आश्रय बन जाता है।
ज) मानो तन जो रह गया, वह भगवान का मन्दिर ही बन जाता है।
झ) बहु चाहना हिय धरी जग वाले उसके पास आते हैं और अपनी अपनी श्रद्धा के अनुसार उस आत्मवान् से सब कुछ पा जाते हैं।
ञ) जो भी उससे सच्चा प्यार करें, वे वैसे ही बन जाते हैं।
आत्मवान् सहवास परिणाम :
1. आत्मवान् के अहर्निश सहवास से ज्ञान तो साधक सहज ही जान जाते हैं।
2. ज्ञान स्वरूप सामने देख कर साधना राह भी पहचान जाते हैं।
3. गर प्रियतम वह ही बन जाये, उसको ही रिझाना चाहते हैं।
4. जो भी ज्ञान उससे पाया, उस ज्ञान की प्रतिमा भी वे बन जाते हैं तथा उस ज्ञान का रूप धर आते हैं।
5. ऐसे आत्मवान् के भक्त के लिये आत्मवान् के शब्द आदेश बन जाते हैं और वे भक्त आत्मवान् के आदेश को शिरोधार्य करके पल भर में वैसे ही बन जाते हैं।
आत्मवान् के लिये संसार कोई अर्थ नहीं रखता। तन के नाते चाहना उठती है। उसका तन ही नहीं रहा, तो चाहना कैसी? तन के नाते राग द्वेष होते थे, तन से नाता गया तो वे सब चले गये। जग से प्रयोजन तन के नाते होता है। यह करना है, यह नहीं करना, यह भी तन के नाते ही होता है। विजय पराजय भी तन की ही होती है। निवृत्ति में रुचि या प्रवृत्ति की परवाह भी तन के नाते ही होती है।
जब तनत्व भाव अभाव हो ही गया तब तन की बातें कौन करे? तन गुण बंधा जो करे सो करे, अब गुणों से भी उसका संग नहीं रहता। ऐसे जीव का न तो कोई कर्तव्य होता है, न ही कोई प्रयोजन रह जाता है।