Chapter 3 Shloka 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।

However:

He who delights in the Self,

is contented in the Self,

and ever satiated in his Self,

he has no duties to perform.

Chapter 3 Shloka 17

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।

However:

He who delights in the Self, is contented in the Self, and ever satiated in his Self, he has no duties to perform.

Little one! The Lord speaks here of the Atmavaan:

1. He has no obligation to perform any duty.

2. He is completely satiated and has no desires left to achieve.

3. He has transcended his body – what his body now does is of no concern to him.

4. He is self satisfied; he who has no more expectations, nothing remains for him to accomplish.

5. Neither does he take from others, nor has he anything to give.

6. His duties in life are over and he is ever joyous. His yagya is complete, and he has thus become an Atmavaan.

7. Since he is devoid of individualism, how can he have any duty towards anyone? Yet his every action is a yagya.

8. Ever content, what need has he of going in search of happiness?

9. Devoid of ego, he is free of the ideas of ‘me’ or ‘mine’. Having achieved the purpose of life, he has no longer any desires nor duties to perform.

How did he attain such a state?

1. Throughout his life, he offered the oblation of his actions in the fire of knowledge.

2. Each moment he renounced his body idea at the feet of his Lord.

3. Having forgotten himself, he always performed his duty and gave his body in the service of the world.

4. Oblivious of his own reputation, he was ever the protector of the other.

5. Forgetting his own happiness, he sought to make the other happy.

6. He had no claims on the world but he fulfilled the world’s claims on him.

All his life, such a one has annihilated his body idea in the fire of the discerning intellect, and has forgotten his individual identity. Now, relinquishing identification with his body, no duty remains for him to fulfill; for, all duties are in relationship with the body self.

a) Yet his body, bound by its gunas, performs all the actions that the situation demands.

b) Devoid of the doer ‘I’, his body is a temple of God.

c) His body performs all actions, but the ‘I’ or ego which claimed those actions, is now no longer there.

Bhagwan Krishna has later stated, “I have no duties to perform but I am ever involved in action.” Yet, whenever the Lord takes birth, He establishes the dharma of dutiful actions based on yagya.

Little one! The Atmavaan habitually works for the well being of all. He serves whosoever seeks help from him and helps that one to gain success.

अध्याय ३

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।

आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते।।१७।।

किन्तु,

शब्दार्थ :

१. जो जीव नित्य आत्मा में ही रमण करता है;

२. अपने आप में तृप्त रहता है;

३. अपने आप में संतुष्ट रहता है;

४. उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है।

तत्व विस्तार :

देख नन्हीं! यहाँ भगवान आत्मवान् के बारे में कह रहे हैं कि :

1. जो आत्मवान् हो चुका, उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं होता।

2. जो नित्य तृप्त हो चुका, उसे अब कुछ भी पाना नहीं होता।

3. वह तनत्व भाव से ऐसा उठा कि तन ही उसका नहीं रहा। तन जो करे सो किया करे।

4. जो आप्तकाम हो चुका, अब उसकी कोई कामना नहीं रहती।

5. उसका काज कर्म कोई नहीं रहा। न ही उसे कुछ किसी को देना होता है, न किसी से कुछ लेना होता है।

6. वह कृत्सन्कृत् हो चुका; जो करना था, वह कर चुका है।

7. यज्ञ भी पूर्ण हो गया, तब ही तो वह आत्मवान् होगा।

8. उसका हर कर्म अब यज्ञ ही होता है।

9. व्यक्तिगतता में ही नहीं रहा, तो किसी के प्रति वह कैसे कर्तव्य करे?

10. जब वह नित्य संतुष्ट हो गया, आनन्द की तलाश में भी वह क्या बढ़ेगा?

क) उसका अहंकार गया।

ख) उसका ‘मम’ भाव भी नहीं रहता; मोह और तनोभाव भी नहीं रहते।

ग) जब तन ही उसका नहीं रहा, वह अपना पराया किसे कहे?

घ) जब जीवत्व भाव ही चला गया तो जीवन का प्रयोजन ही नहीं रहता।

ङ) ऐसे का कोई कर्तव्य नहीं रह जाता।

किन्तु नन्हीं! यह समझ ले कि यह स्थिति उसने कैसे पाई है?

1. जीवन भर वह ज्ञान अग्न में अपने कर्मों का यज्ञ करता आया है।

2. वह पल पल अपने तनत्व भाव की आहुति देता आया है।

3. वह अपने आपको भूल कर नित्य कर्तव्य निभाता आया है।

4. अपने आपको भूल कर वह अपना तन जग को देता आया है।

5. अपने मान को भूल कर वह लोगों के मान का संरक्षण करता आया है।

6. अपने सुख को भूल कर वह लोगों को सुख देता आया है।

7. अपने नाम को भूल कर वह लोगों के नाम को स्थापित करता आया है।

8. अपने सब हक़ भूल कर, लोगों के अपने पर जो हक़ थे, उन्हें निभाता आया है।

नन्हीं! वह तो जीवन भर आत्म ज्ञान विवेक की अग्न जला कर अपना तनत्व भाव जलाता आया है, तब ही तो आज अपने को भूल चुका है। आज अपने तन से तद्‍रूपता छोड़ कर अपने ही तन से नाता तोड़ आया है। अब उसका कोई कर्तव्य नहीं, क्योंकि कर्तव्य तो तन के नाते होते हैं।

1. तन तो अपने स्वभाव से बंधा, परिस्थिति अनुकूल सब कुछ करता ही जायेगा।

2. ‘मैं’ रूपा कर्ता के रहित तन भगवान का मन्दिर बन जायेगा।

3. वह तन करता तो सब कुछ है, किन्तु उसमें ‘मैं’ रूपा कर्म को अपनाने वाला अहंकार नहीं होता।

भगवान ने आगे जाकर स्वयं भी कहा है कि, ‘मेरा कोई कर्तव्य नहीं, किन्तु फिर भी मैं कर्मों में विचरता हूँ।’ भगवान स्वयं भी तो जब जब जन्म लेते हैं, वह यज्ञ रूपा कर्तव्य धर्म की स्थापना करते हैं।

नन्हीं! आत्मवान् को मानो सबका कल्याण करने की आदत पड़ जाती है। वह तो सर्वभूत हितकर हो जाते हैं, उनके पास जो आये वह उससे उसी के काज ठीक ढंग से करवाते हैं।

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