अध्याय ३
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति।।१६।।
हे पार्थ!
शब्दार्थ :
१. जो इस प्रकार प्रवर्तित सृष्टि चक्र के अनुसार इस संसार रूपा लोक में नहीं घूमता,
२. वह इन्द्रियों में रमण करने वाला, पाप आयु है
३. और व्यर्थ ही जीता है।
तत्व विस्तार :
भगवान कहने लगे अर्जुन से :
1. जो यज्ञ पूर्ण कर्म नहीं करता, वह जीवन वृथा गंवाता है।
2. जो शास्त्र विहित राह का अनुसरण नहीं करता, वह पाप पूर्ण जीवन वाला है।
3. जो केवल अपने लिये जीता है, वह वृथा ही जीता है।
4. जो सब कुछ ले और किसी को कुछ न दे, वह तो संसार पर बोझ ही है।
5. जो केवल अपने लिये ही काम करता है, वह कृतघ्न और दुराचारी है।
6. अज्ञान, मोह से भरा हुआ वह यज्ञ के तत्व को नहीं जानता।
7. न वह कर्म को जान सका और न ही वह धर्म को जानता है।
8. वह अपने से ही बेगाना रह जाता है और अपने स्वरूप को बिना जाने ही मर जाता है।
9. ऐसे इन्सान की बुद्धि भी जागृत नहीं हुई, वह तो व्यर्थ ही जीता रहा।
10. वह सुख की तलाश में इन्द्रियों के पीछे जाता रहा और सुख भी उसे नहीं मिला।
11. वह कुछ भी पुण्य कर्म न कर सका; और जीवन भर पाप ही करता रहा।
12. वह पाप ही कमाता रहा, इसलिये उसे आगे भी पाप पूर्ण दु:खमय जीवन ही मिलेगा।
13. जब बीज ही अच्छे नहीं बनाये, आगे वह क्या पायेगा? उसने व्यर्थ ही जीवन गंवा दिया।
14. वह पाप योनि में जायेगा; क्योंकि जैसा उसने दूसरों से किया, वही तो उसको मिलेगा।
नव जन्म जब आपको मिलेगा, जहान अंधियारा ही होगा। समिधा विपरीत ही पावोगे, क्योंकि, आपने दूसरों को विपरीतता ही दी थी। अन्न भी आपको मिलेगा नहीं, क्योंकि आपने दूसरों को अन्न कभी दिया ही नहीं होगा। जग भी आपको ठुकरायेगा, क्योंकि आप नित्य जग को ठुकराते रहे।
पाप योनि से समझ ले :
1. जीवन भर पाप करने वाला,
2. अशुभ कर्म करने वाला,
3. दूसरों का अनिष्ट करने वाला,
4. कुकृत्य करने वाला,
5. निन्दनीय और असत्मय कर्म करने वाला,
6. असत् पर विश्वास करने वाला,
7. बुरे बुरे विचारों में विचरने वाला,
8. केवल तन की स्थापति के लिये ही जीने वाला,
9. केवल अपने मन की मौज के लिये ही जीने वाला समझ लो।
भगवान कहते हैं कि ऐसे लोग व्यर्थ ही जीते हैं। वे तो भूमि पर केवल बोझ ही होते हैं। केवल दु:ख फैलाने वाले ही होते हैं। न वे कभी आप सुख पाते हैं, न दूसरों को सुखी होने देते हैं। न वे कभी सत् पर चलते हैं, न दूसरों को सत् पर चलने देते हैं। वे पापी लोग पाप ही करते हैं और पाप का नित्य विस्तार ही करते हैं।