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Chapter 3 Shloka 12
इष्टान्भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव स:।।१२।।
The Gods satiated by Yagya, will without a doubt,
give you your desired objects of enjoyment.
He who partakes of those gifts
without giving anything in return to the Gods,
is a thief.
Chapter 3 Shloka 12
इष्टान्भोगान्हिसवोदेवादास्यन्तेयज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्योयोभुंक्तेस्तेनएवस:।।१२।।
The Gods satiated by Yagya, will without a doubt, give you your desired objects of enjoyment. He who partakes of those gifts without giving anything in return to the Gods, is a thief.
When the divine energy within you is thus enhanced through yagya, you will attain your desired fruit. Whatever fruit you receive thus, consider it as a benediction from the gods and lay it at their feet.
1. Consider the bliss you receive as yagyashesh to be a blessing from the gods.
2. So also, consider the qualities which flower as a result of yagyashesh to be the glory of victory of the divine deities.
3. The prowess or energy which grows through the practice of yagya is a gift of the gods.
4. The gross gains or spiritual knowledge received have to be acknowledged with gratitude as a gift from those gods.
5. The increase in the strength of the sense organs through the practice of yagya is also divine benediction and this energy should be utilised in the service of the Lord.
The energy of your sense organs is also a gift of the gods. Offer your potential at their feet and become godlike. Then realising that this power is of the Supreme One, conduct yourself in subservience to That One. Deal with other beings without attachment, as they also do not belong to you.
The Lord has herewith shown us an easy path towards abidance in the Atma. Develop a devotional attitude towards the God-given faculties and abilities you possess. Do not pride yourself even upon experiencing the fruits of the knowledge you have attained. You first renounced sin and began to perform meritorious deeds, then you transcended even those meritorious deeds to practice yagya. Now relinquish attachment even with these deeds performed as a sacrificial offering to the Lord and invoke the Atma. Only then can you become an Atmavaan.
God does not forbid you to partake of worldly objects. Utilise them. Merely give up attachment. The devtas partake only of yagyashesh!
Devta
The gross gifts obtained through deeds performed by your God-given talents are partaken of by your body. The devtas have no physical body. The only offering you can make them is to lay before them the sanctified fruits of the yagya you have performed through the energy given by them. Remember that you have received the yagyashesh through their grace.
Do not labour under the misapprehension that you have achieved anything through your own effort. Neither must you consider those potentialities and talents to be your own. If you accept those qualities to be a special boon granted by the Supreme, you will transcend the body with the greatest ease. He who does not take any credit for his meritorious deeds and offers all merit to the Lord, he speedily transcends both fame and dishonour.
Ordinarily, people usurp the credit for their meritorious deeds and attempt to veil their discreditable deeds. The traveler on the path of the Supreme Truth does the very opposite.
अध्याय ३
इष्टान्भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव स:।।१२।।
शब्दार्थ :
१. यज्ञ से संतुष्ट हुए देवता,
२. तुझे निस्सन्देह मनोवांछित भोग देंगे,
३. उन देवताओं के दिये हुए (भोगों को),
४. जो उन देवताओं को दिये बिना भोगता है, वह चोर है।
तत्व विस्तार :
देव शक्ति जब बढ़े और यज्ञ करे, तुम वांछित फल पा जाओगे। देवताओं से जो फल मिले, उसे देवताओं की देन जानो। भगवान कहते हैं, वह भी इनके चरण धरो। साधक! तुझे वह कहते हैं :
1. जो आनन्द तुझे यज्ञशेष राह से मिले, उसे भी देवताओं की ही देन जानो।
2. जो गुण यज्ञशेष राह से उपजें, उन्हें देवताओं की विजय का प्रताप मानो।
3. जीवन में यज्ञ राह से जो शक्ति बढ़े, वह देवताओं की देन है, यह जानो।
4. इस शक्ति राह से जो स्थूल संसार मिले, वह देवताओं की ही देन जानो।
5. इस शक्ति राह से जो ज्ञान मिले, उसे कृतज्ञता पूर्ण दृष्टि से देखो।
6. यज्ञ राह से जो इन्द्रिय शक्ति बढ़े, उसे भगवान की देन मानो और भागवत् काज में ही लगाओ।
इन्द्रिय शक्ति :
1. वह भी देवताओं की देन है।
2. वह भी तुम देवताओं के ही चरण धरो और तुम देवता बनो।
3. वह शक्ति भी परम की है, इस तत्व को जान लो।
4. अन्य जीवों के साथ जीवन में परम परायण होकर वर्तो।
5. उनसे भी संग नहीं करो, क्योंकि वह भी तुम्हारे नहीं है।
तुझे आत्मवान् बनना है तो यहाँ सहज विधि कही है। उस शक्ति के प्रति अपने में भक्तिपूर्ण दृष्टि उत्पन्न करो। दैवी सम्पदा जो पाये हो, उसे भागवत् देन जान लो। ज्ञान का अनुभव होने लगे तो उसमें भी गुमान नहीं करना चाहिये। पाप त्यजी पुण्य किये, पुण्य त्यजी तप तथा यज्ञ किया, अब यज्ञ त्यजी आत्म भजो। तब ही आत्म में स्थित हो सकोगे।
‘तैर्दत्तान’ कह कर जान लो, भगवान ‘छोड़ दो’ नहीं कहते, संग त्याग ही वास्तविक त्याग होता है, बस इतना ही कहते हैं। देवता यज्ञशेष खाते हैं।
देवता :
आपके ही तन में, जो दैवी शक्तियाँ आप ही से काज करवाती रही हैं, उनके परिणाम में जो स्थूल भोग पाये हो, उनका भोग आप कर सकते हैं; स्थूल विषय भोग तो तन राही ही होता है। देवता तो शक्तियाँ होती हैं, उनके पास अपना कोई तन नहीं होता है। आपको जो यज्ञशेष मिलता है, उसे उनके चरणों में धरना ही देवताओं को भोग लगाना है।
यानि यज्ञशेष देवताओं की कृपा से आपको मिला। उस पर आप इतरायें नहीं। उन गुणों को आपने अपने बल से पाया है, ऐसा भाव अपने मन में कभी न आने दें। उन गुणों को अपना न मान लें। यदि उन गुणों को आप परम देन, परम शक्ति मानें; यदि आप अपने सद्गुण नहीं अपनायेंगे, तो तनत्व भाव से उठने में भी सुगमता आ जायेगी।
जो इन्सान अपने सुकर्मों को नहीं अपनाता और सराहता, जो अपने शुभ कर्मों को भगवान पर छोड़ देता है, वह इन्सान मान और अपमान से जल्दी उठ जाता है। अधिकांश जीव अपने अच्छे कर्मों को अपनाकर तो गुमान करते हैं और बुरे कर्म छुपा कर मौन रहते हैं। आत्म तत्व की ओर बढ़ने वाले निपुण तथा दक्ष साधक यह नहीं करते, बल्कि इससे उलटी बात करते हैं। भगवान कृष्ण स्वयं अर्जुन को यह बता रहे हैं।